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न जाने बे खयाली में हुआ है क्या बुरा मुझसे
हवादिस पूछने आते हैं अब मेरा पता मुझसे
मुहब्बत हो कि नफरत हो , झिझक कैसी है कहते अब
हया कैसी है डर कैसा , बयाँ कर दे, जता मुझसे
अगर इनआम देना है , कहीं से भी शुरू कर तू
सजा का वक़्त गर आये तो फिर कर इब्तिदा मुझसे
न कह मुझसे जलाऊँ मै चरागों को कहाँ, कैसे
जलाऊँगा , अभी ठहरो , मुख़ालिफ़ है हवा मुझसे
समझ पाते तो अच्छा था वो मेरी बे ज़ुबानी भी
कहो उनसे न पूछें वो कभी भी मुद्दआ मुझसे
मै सच का आइना लेके हुआ जब भी मुकाबिल तो
कभी सूरज कभी चंदा हुआ मद्धम , छिपा मुझसे
तू जज़्बाती न होता तो भला बाहर मै आता क्यों
कभी बहते हुये आँसू ने रुक कर था कहा मुझसे
शिकायत क्या करूँ ग़ैरों से , बुझता एक दीपक हूँ
नहीं रखते हैं अपने भी कोई भी वास्ता मुझसे
तू चाहे अनसुनी करके गया हो मेरा अफ़साना
मै सुन लूँगा तेरी हर बात अगर चाहे बता मुझसे
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मौलिक एवँ अप्रकाशित ।
Comment
अगर इनआम देना है , कहीं से भी शुरू कर तू
सजा का वक़्त गर आये तो फिर कर इब्तिदा मुझसे
वाह वाह आदरणीय गिरिराज जी बहुत बहुत बधाई इस ग़ज़ल के लिये । सादर
आ० भाई गिरिराज जी इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए कोटि कोटि बधाई l
बेहेतरीन ग़ज़ल, लाजवाब शेर
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