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वो छुपाते रहे अपना दर्द

अपनी परेशानियाँ

यहाँ तक कि

अपनी बीमारी भी….

 

वो सोखते रहे परिवार का दर्द

कभी रिसने नहीं दिया

वो सुनते रहे हमारी शिकायतें

अपनी सफाई दिये बिना ….

 

वो समेटते रहे

बिखरे हुये पन्ने

हम सबकी ज़िंदगी के …..

 

हम सब बढ़ते रहे

उनका एहसान माने बिना

उन पर एहसान जताते हुये

वो चुपचाप जीते रहे

क्योंकि वो पेड़ थे

फलदार

छायादार ।

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by saalim sheikh on February 4, 2016 at 1:33am

वो सोखते रहे परिवार का दर्द

कभी रिसने नहीं दिया

वो सुनते रहे हमारी शिकायतें

अपनी सफाई दिये बिना ….
वाह नादिर साहब , बेहद उम्दा! लाजवाब!  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 4, 2016 at 12:49am

आदरणीय नादिर सर, पिता को परिभाषित करती बहुत शानदार प्रस्तुति. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई. सादर.

कृपया ध्यान दे...

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