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सुनते सुनते गीत प्रेम का क्या सूझी पुरवाई को
कोयल आँसू भर भर देखे आग लगी अमराई को /1
बात कहूँ तो बन जाएगी जग की यार हँसाई को
जैसे तैसे झेल रहा हूँ जालिम की रूसवाई को /2
दिन तो बीते आस में यारो शायद चलती राह मिले
किन्तु पुराने खत पढ़ काटा रातों की तनहाई को /3
वो साहिल की रेत देख कर चाहे यूँ ही लौट गया
ख्वाबों में देखेगा लेकिन दरिया की गहराई को /4
भर कर जेबें रोज चढ़े है मस्ती को सैलानी तू
हमको रोटी विवश कर गई पर्वत से उतराई को /5
कहते हैं उसका तो रिश्ता सूरज रहने तक ही है
ढूँढ रहा है क्यों तू पगले साँझ ढले परछाई को /6
बच्चे की जिद चाँद को छूना पूरे घर का दर्द बना
घर में थाल नहीं पानी का बच्चे की मनवाई को /7
ढूँढ रहे हैं खोट तात में इस बस्ती के लोग सभी
माता का सम्बोधन बोला जब से घर की बाई को /8
यार ‘मुसाफिर’ इस युग जग में नेकी मत कर कोई भी
चर्चित होना है गर तुझको आग लगा अच्छाई को /9
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर "
Comment
आ0 भाई सुशील जी प्रशंसा और स्नेह के लिए आभार ।
आ0 भाई रिजवान जी हार्दिक धन्यवाद ।
आ0 कांता बहन प्रशंसा के लिए आभार ।
आ0 भाई मिथिलेश जी प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ0 भाई तस्दीक अहमद जी । प्रशंसा के लिए आभार । यह शब्द दोनों ही रूपों में प्रयुक्त होता है । शुक्रिया ।
आ0 भाई समर कबीर जी प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद । आपके द्वारा इंगित मिसरे में शब्द बना ही होगा क्योंकि वह जिद के लिए नहीं वरन दर्द के लिए क्रिया का कार्य कर रहा है ।
आ0 भाई तेजवीर जी हार्दिक आभार ।
आ0 भाई रवि जी गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
सुनते सुनते गीत प्रेम का क्या सूझी पुरवाई को
कोयल आँसू भर भर देखे आग लगी अमराई को /1
वाह वाह वाह आदरणीय लक्ष्मण धामी जी ..... क्या अहसास संजोये हैं आपने इस दिलकश मतले में ... सलाम करता हूँ आपकी लेखनी के कल्पनाशीलता पर .... इस ग़ज़ल के हर शेर पर दिल से बधाई स्वीकार करें आदरणीय। सलाम सलाम सलाम सर।
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