प्यार में .......
नहीं नहीं
मैं अभी मृत्यु को
अंगीकार नहीं करना सकता//
अभी तो प्रेम सृजन का
शृंगार अधूरा है//
वृक्ष विहीन प्रेम पंथ पर
तलवों की तपिश का
संहार अधूरा है//
पाषाण बने पलों में
किसी लहर के
तट से मिलन का
इंतज़ार अधूरा है//
अभी तो मृत्यु से पूर्व
मुझे उसके लिए जीना है
जिसने आसमान के टूटे तारे से
बंद आँखों से
संग संग जीने की
दुआ माँगी है //
जो मेरे जीने के लिए
हर पल
मेरे मृत्यु पल से लड़ी है //
भला कैसे मैं
उसके जीवन में
विरह पलों का संचार करूँ//
सच मुझे अभी तो जीना है
ताकि मैं
उसके निच्छल प्यार में
मर सकूँ//
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीया कान्ता रॉय जी आपकी प्रतिक्रिया पर एक डायलॉग याद आ रहा है कि ''अगर सुनने वाले के दिल से वाह न निकले तो कलाकार के दिल से आह निकलती है '' बड़ी शिद्दत से लिखी पंक्तियों पर जब प्रतिक्रिया की उदासीनता नज़र आती है तो लगता है शायद सृजन में ही खोट है। खैर इस रचना की बुतफ़रोशी को आपने दिल से सराहा , उसमें निहित भावों को आत्मीय मान दिया , सच सृजन सफल हो गया। आपके इस आत्मीय सम्मान के लिए मैं दिल की असीम गहराईयों से आपका आभार व्यक्त करता हूँ।
आदरणीय Kewal Prasad जी प्रस्तुति में निहित भावों को आत्मीय सम्मान देने का हार्दिक आभार।
आ० सरना भाई जी, बहुत ही रहस्यपूर्ण कविता....
"नहीं नहीं
मैं अभी मृत्यु को
अंगीकार नहीं करना सकता//
अभी तो प्रेम सृजन का
शृंगार अधूरा है//
वृक्ष विहीन प्रेम पंथ पर
तलवों की तपिश का
संहार अधूरा है//
पाषाण बने पलों में
किसी लहर के
तट से मिलन का
इंतज़ार अधूरा है//
अभी तो मृत्यु से पूर्व
मुझे उसके लिए जीना है
जिसने आसमान के टूटे तारे से
बंद आँखों से ......." बधाई स्वीकार करें. सादर
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