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शेर-सा, बाघ-सा, तेंदुआ-सा लगा
शह्र में हर कोई भागता-सा लगा
अक्स उसने दिखाया मेरा हू-ब-हू
आज कोई मुझे आइना-सा लगा
यूं मुझे ज़ीस्त के तज़्रिबे थे कई
तज़्रिबा इश्क़ का पर नया-सा लगा
क़ामयाबी मुक़द्दर के हाथ आ गई
कोशिशों से कोई ढूंढता-सा लगा
त्यौरियां हुक्मरानों की चढ़ने लगीं
जब भी आम-आदमी खुश ज़रा-सा लगा
जिस्म-ओ-जां एक कब के हुए थे,मगर
दरमिया कुछ-न-कुछ फ़ासला-सा लगा
कुछ परिंदों का जब से बसेरा हुआ
वो शजर उम्र-भर फिर हरा-सा लगा
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जयनित कुमार मेहता
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
इस शानदार ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधाई स्वीकार करें
शेर-सा, बाघ-सा, तेंदुआ-सा लगा
शह्र में हर कोई भागता-सा लगा....क्या बात है बेहतरीन
जयनित जी सुंदर ग़जल के लिए धन्यवाद
अक्स उसने दिखाया मेरा हू-ब-हू
आज कोई मुझे आइना-सा लगा - बधाई हो
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