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शेर-सा, बाघ-सा, तेंदुआ-सा लगा (ग़ज़ल)

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शेर-सा, बाघ-सा, तेंदुआ-सा लगा

शह्र में हर कोई भागता-सा लगा

अक्स उसने दिखाया मेरा हू-ब-हू

आज कोई मुझे आइना-सा लगा

यूं मुझे ज़ीस्त के तज़्रिबे थे कई

तज़्रिबा इश्क़ का पर नया-सा लगा

क़ामयाबी मुक़द्दर के हाथ आ गई

कोशिशों से कोई ढूंढता-सा लगा

त्यौरियां हुक्मरानों की चढ़ने लगीं

जब भी आम-आदमी खुश ज़रा-सा लगा

जिस्म-ओ-जां एक कब के हुए थे,मगर

दरमिया कुछ-न-कुछ फ़ासला-सा लगा

कुछ परिंदों का जब से बसेरा हुआ

वो शजर उम्र-भर फिर हरा-सा लगा

=======================

जयनित कुमार मेहता

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 827

Comment

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Comment by Samar kabeer on February 21, 2016 at 3:02pm
जनाब जयनित कुमार मेहता जी आदाब,बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं !
Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 21, 2016 at 1:56pm

इस शानदार ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधाई स्वीकार  करें 

शेर-सा, बाघ-सा, तेंदुआ-सा लगा

शह्र में हर कोई भागता-सा लगा....क्या बात है  बेहतरीन 

Comment by मोहन बेगोवाल on February 20, 2016 at 5:25pm

  जयनित जी सुंदर ग़जल के लिए धन्यवाद

अक्स उसने दिखाया मेरा हू-ब-हू

आज कोई मुझे आइना-सा लगा - बधाई हो 

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