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अभिमन्यु(अतुकांत कविता)

लड़ रहा वह युद्ध कबसे
पर थका कब?
घिर भी जाता अकेला
व्यूह में बेशस्त्र वह
हारता हिम्मत कहाँ?
लड़ता रहा बेखौफ वह
हाथ में पहिया भले टूटा हुआ
तो क्या हुआ?
हुंकारता दहला रहा वह
शूर वीरें को
जो बिके हर काल में
बेजुबां ही मर गये।
कैद मैं रहता कहाँ
फड़फड़ाता तोड़ता
भी वह कड़ी
रहता सदा ही मुक्त वह
जो कि परिंदा है।
लाख मारो मर नहीं सकता
'अभि' हर रोज जिंदा है।
मौलिक व अप्रकाशित@मनन

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Comment by kanta roy on March 4, 2016 at 1:00pm
लड़ रहा वह युद्ध कबसे
पर थका कब?
घिर भी जाता अकेला
व्यूह में बेशस्त्र वह
हारता हिम्मत कहाँ?------ वाह ! साजिशों ,कुचक्रो की गति कब थमी है ।अभिमन्यु जिंदा था, अभिमन्यु सदा जिंदा रहेगा ,को अप्रीतम भाव दिये है आपने आदरणीय मनन कुमार जी । मन को आंदोलित करती इस सार्थक रचना के लिये ढेरों बधाई आपको ।
Comment by Manan Kumar singh on March 4, 2016 at 7:32am
आदरणीय ब्रजेश जी, समर जी आभार व नमन।
Comment by Samar kabeer on March 3, 2016 at 5:47pm
जनाब मनन कुमार जी आदाब,बहुत बढ़िया लगी अतुकांत कविता,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 3, 2016 at 4:26pm

बड़ी ही सारगर्भित रचना है आदरणीय

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