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बजा करती हैं कानों में तुम्हारी पायलें अब भी - ग़ज़ल - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

1222    1222    1222    1222

बिछड़ कर भी  कहाँ  तुझसे तेरी बातों को भूले हैं
कहाँ उस  झील के तट की मुलाकातों को भूले हैं।1।

कि छोड़ा हमने अपना दिन तेरी जुल्फों के साये में
तेरे काँधें  पे हम  अपनी  सनम  रातों को भूले हैं।2।

बजा करती  हैं कानों  में तुम्हारी पायलें अब भी
खनकती  चूडि़यों  वाले  न उन  हातों को भूले हैं।3।

न  छत  पर  चाँद तारों से  हमारा हाल तुम पूछो
तपन की याद किसको है  कि बरसातों को भूले हैं।4।

अगर है याद जो थोड़ा विजय वो पहले चुम्बन की
नहीं तो  याद  से  अपनी  सभी  मातों को भूले हैं।5।

मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 6, 2016 at 11:00am

आ० भाई सुशिल जी आपकी दिली डैड के लिए हार्दिक धन्यवाद . आपको ग़ज़ल पसंद आई लेखन सफल हुआ . स्नेह बनाए रखें 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 6, 2016 at 10:59am

आ० सीमा जी ग़ज़ल का अनुमोदन कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार . उपस्थिति बनाए रखें .

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 5, 2016 at 10:31pm
क्या खूबसूरत ग़ज़ल कही आदरणीय वाह हर एक शेर लाज़बाब....तीसरे शेर पे थोड़ा गौर करें हातों व हाथों एक ही बात है या टाइपिंग त्रुटि है ?सिर्फ जानकारी के लिए पूछ रहा हूँ ....
Comment by Sushil Sarna on April 5, 2016 at 8:07pm

बिछड़ कर भी कहाँ तुझसे तेरी बातों को भूले हैं

कहाँ उस झील के तट की मुलाकातों को भूले हैं।1।

कि छोड़ा हमने अपना दिन तेरी जुल्फों के साये में

तेरे काँधें पे हम अपनी सनम रातों को भूले हैं।2।

बहुत खूब आदरणीय धामी जी मतले से मक़ते तक आपके हर शे'र ने गज़ब ढाया है .... बन्दे की दिली वाह कबूल फरमाएं।

Comment by सीमा शर्मा मेरठी on April 5, 2016 at 12:47pm
वाह लअज़वाब

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