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बिछड़ कर भी कहाँ तुझसे तेरी बातों को भूले हैं
कहाँ उस झील के तट की मुलाकातों को भूले हैं।1।
कि छोड़ा हमने अपना दिन तेरी जुल्फों के साये में
तेरे काँधें पे हम अपनी सनम रातों को भूले हैं।2।
बजा करती हैं कानों में तुम्हारी पायलें अब भी
खनकती चूडि़यों वाले न उन हातों को भूले हैं।3।
न छत पर चाँद तारों से हमारा हाल तुम पूछो
तपन की याद किसको है कि बरसातों को भूले हैं।4।
अगर है याद जो थोड़ा विजय वो पहले चुम्बन की
नहीं तो याद से अपनी सभी मातों को भूले हैं।5।
मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आ० भाई सुशिल जी आपकी दिली डैड के लिए हार्दिक धन्यवाद . आपको ग़ज़ल पसंद आई लेखन सफल हुआ . स्नेह बनाए रखें
आ० सीमा जी ग़ज़ल का अनुमोदन कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार . उपस्थिति बनाए रखें .
बिछड़ कर भी कहाँ तुझसे तेरी बातों को भूले हैं
कहाँ उस झील के तट की मुलाकातों को भूले हैं।1।
कि छोड़ा हमने अपना दिन तेरी जुल्फों के साये में
तेरे काँधें पे हम अपनी सनम रातों को भूले हैं।2।
बहुत खूब आदरणीय धामी जी मतले से मक़ते तक आपके हर शे'र ने गज़ब ढाया है .... बन्दे की दिली वाह कबूल फरमाएं।
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