वही नर्म अहसास ....
वही नर्म अहसास
किसी सुर्ख शफ़क़ से
पलकों की खिड़की में
यादों की शरर बन
जाने कब
मेरी रूह में उतर गए//
वही नर्म अहसास
मेरी तन्हाईयों को
मुझसे लिपट
मेरी करवटों को
ख़ुशनुमा सुरों से सजा
मेरी हयात को
जीने की अदा दे गए//
वही नर्म अहसास
फिर किसी गुजरे लम्हे से निकल
दिल के करीब यूँ हंसे
मानो फ़िज़ाओं ने हौले से
अपनी पाज़ेब छनकाई हो
शोखियों में डूबी
जैसे कोई शाम
शरमाई हो
मैं समझ न सकी
ये किसके लम्स
आज तलक मेरी नफस में ज़िंदा हैं
वही नरम अहसास
शायद बादे सबा
अपने साथ लेकर आई है
ज़हन की खामोशियों में
जैसे किसी शोख़ शरर ने
चुपके से ली अंगड़ाई हो//
वही नर्म अहसास
कि जिसने रिस्ते ज़ख्मों पर
गुलाबों के शबनम रख
उदासियों की दहलीज़ पर
हसीं मौसम के आने की
जैसे दस्तक दी है
अपने ज़हन में
सिमटे अक्स के साथ
सिमटने की इज़ाज़त दी है//
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ. रामबली गुप्ता साहिब आपकी रूहानी हौसलाअफ़्ज़ाई के तहे दिल से शुक्रिया।
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