२१२२ १२१२ २२
हुस्न गर बावफ़ा नहीं होता,
दिल कभी आशना नहीं होता
खेलना दिल से तोड़ देना फिर
ये कोई कायदा नहीं होता
दिल्लगी से हुए तमाशे का
हर कहीं तज़करा नहीं होता
जान पाता कभी नहीं उसको
,मैं अगर आइना नहीं होता
मार देती ये तिश्नगी मुझको,
काश ये मयकदा नहीं होता
मुश्किलों से निजात पाने को,
मौत ही रास्ता नहीं होता
छेड़ता वो न बारबार इसको,
जख्म मेरा हरा नहीं होता
रास्ते हो गए अलग अपने ,
आजकल सामना नहीं होता
भूल जाता मै बेवफाई सब
,काश यूँ सिरफिरा नहीं होता
-----मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ० विजय निकोर जी,ग़ज़ल पर शिर्कत और सुखन नवाजी का बेहद शुक्रिया आप प्रतिक्रिया देते हैं तो अच्छा लगता है |
आ० रवि शुक्ल भैया,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लेखन कर्म सार्थक हुआ तहे दिल से बहुत बहुत आभार शुक्रिया आपका .
आ० डॉ० आसुतोष जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ आपने जो शेर कोट किया है उसमे एक व्यथित हारे हुए हृदय के भाव हैं की काश मैं प्यासा ही मर जाता ये मयकदा क्यूँ आ गया बचाने ...शायद मैं अब सपष्ट कर सकी |आपका तहे दिल से आभार |
आ० धर्मेन्द्र जी ,ग़ज़ल पर शिरकत और दाद के लिए तहे दिल से शुक्रिया |
आपसे एक और खूबसूरत गज़ल मिली। बधाई।
आदरणीया राजेश जी ..एक से बढ़कर एक शेर हैं
मार देती ये तिश्नगी मुझको,
काश ये मयकदा नहीं होता लेकिन इस शेर को मैं भली भांति नहीं समझ सका ..इस सुंदर रचना पर हार्दिक बधाई सादर
बहुत ख़ूब आदरणीया राजेश कुमारी जी, अच्छे अश’आर हुए हैं, दाद कुबूल करें।
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