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ग़ज़ल
जख्म फिर से हरा हो गया
दर्द -ए -दिल आइना हो गया
याद ऐसा किया देख कर
सोच के बाबरा हो गया
काम के नाम ने चोट की
दिल बचा दिल जला हो गया
नींद का आँख से रूठना
रोज़ का सिलसिला हो गया
फीस में छूट थी जो मिली
लाडला फिर बड़ा हो गया
दाद दो तुम जरा इसलिए
गिर के वो खड़ा हो गया
खेल की पोल थी जब खुली
फिर मज़ा किरकिरा हो गया
मुनीष 'तन्हा'...नादौन..
9882892447

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 25, 2016 at 8:52pm

आपने ग़ज़ल तीन बार पोस्ट कर दी एडमिन जी से कहके  दो हटवा दीजिये  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on April 25, 2016 at 6:28pm

यह गज़ल तीसरी बार आपने पोस्ट कर दी है ।

Comment by Ravi Shukla on April 25, 2016 at 2:10pm

आदरणीय मुनीश जी गजल केे सुन्‍दर प्रयास के लिये बधाई 

फीस में छूट थी जो मिली
लाडला फिर बड़ा हो गया इस शेर का भाव स्‍पष्‍ट नहीं हो पाया 

Comment by munish tanha on April 24, 2016 at 7:15pm
shukriya kabeer ji
Comment by munish tanha on April 24, 2016 at 7:09pm
shukriya dr. saheb
Comment by Samar kabeer on April 24, 2016 at 6:18pm
जनाब मुनीश तन्हा साहिब आदाब,बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारजबद क़ुबूल फरमाएँ ।
छटे शैर के ऊला मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर का दोष है, और सानी मिसरे में एक शब्द लिखने से रह गया है, इस शैर को इस तरह कर लीजिये:-
"दाद तुम दो ज़रा इसलिये
गिर के वो फिर खड़ा हो गया"
बाक़ी शुभ शुभ
Comment by Dr Ashutosh Mishra on April 24, 2016 at 2:46pm

इस सुंदर प्रयास के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें 

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