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जब धरती पर रावण राजा बनकर आता है
जो सच बोले उसे विभीषण समझा जाता है
केवल घोटाले करना ही भ्रष्टाचार नहीं
भ्रष्ट बहुत वो भी है जो नफ़रत फैलाता है
कुछ तो बात यकीनन है काग़ज़ की कश्ती में
दरिया छोड़ो इससे सागर तक घबराता है
भूख अन्न की, तन की, मन की फिर भी बुझ जाती
धन की भूख जिसे लगती सबकुछ खा जाता है
करने वाले की छेनी से पर्वत कट जाता
शोर मचाने वाला केवल शोर मचाता है
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया राजेश कुमारी जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय गिरिराज जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय रवि शुक्ला जी
आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, बहुत शानदार ग़ज़ल कही है आपने. मतला से आखिरी शेर तक शानदार. शेर दर शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. सादर
कुछ तो बात यकीनन है काग़ज़ की कश्ती में
दरिया छोड़ो इससे सागर तक घबराता है------क्या बात है बहुत बढ़िया शेर
आ० धर्मेन्द्र जी ,इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए दाद कुबूलें.
आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , अच्छी गज़ल हुई है , दिल सेबधाइयाँ स्वीकार करें ।
आदरणीय धर्मेन्द्र जी अच्छी गजल के लिये दिली मुबारक बाद हाजिर है
कुछ तो बात यकीनन है काग़ज़ की कश्ती में
दरिया छोड़ो इससे सागर तक घबराता है बहुत खूब अंदाजे बया के लिये पुन: बधाई
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