ख़्वाबों के पैराहन से ....
कभी कभी ज़िंदगी
अपने फैसलों पर
खुद पशेमाँ हो जाती है
मुहब्बत के हसीं मंज़र
ग़मों की गर्द में छुप जाते हैं
थरथारते लबों पे
लफ्ज़ कसमसाते हैं
तल्खियां हर कदम राहों में
यादों के नश्तर चुभोती हैं
खबर ही नहीं होती
मौसम पलकों पे ही बदल जाते हैं
चार कदम के फासले
मीलों में बदल जाते हैं
हमदर्दियों के बोल
लावों में तब्दील हो जाते हैं
सांसें अजनबी बन जाती हैं
कोई अपना
कब चुपके से गैर बन जाता है
और हसीं लम्हों को
चश्म-ऐ-शबनम में डुबोकर
तकदीर में तारीकियाँ भर जाता है
बस यही से हयात
यादों का इक सिलसिला बन जाती है
सांझ और सहर
फलक पर रह जाती है
ख़्वाबों के पैराहन से निकल
हकीकत मुस्कुराती है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर साहिब प्रस्तुति में निहित भावों को अपने स्नेह से सरोबार करने का दिल से आभार।
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी प्रस्तुति पर आपकी आत्मीय प्रशंसा ने उसे एक नयी ऊंचाई प्रदान की है। आपके अमूल्य प्रशंसनीय सुझाव का बन्दा दिल से आभारी है। भविष्य में इसपर जरूर प्रयास करूंगा। आपके अतुल्य स्नेह का हार्दिक आभार।
आदरणीय सुशील सरना सर, बहुत बढ़िया भावाभिव्यक्ति हुई है. हार्दिक बधाई. अभ्यास के क्रम में एक विचार आया कि इस 'छंद मुक्त' प्रस्तुति को 'मुक्त छंद' में लिखा जाता तो इसका प्रभाव और सौन्दर्य दोगुना हो जाता. यथा-
कि अपने फैसलों पर जिंदगी होती पशेमाँ खुद
मुहब्बत के हसीं मंज़र
ग़मों की गर्द में छुपकर
लबों पे थरथराते लफ्ज़ जैसे कसमसाते हैं
........................
हकीक़त मुस्कुराती है
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