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स्नेह का दीप चाहे विजन में जले किन्तु जलता रहे यह् बढे न कभी

जो हृदय शून्य था मृत्तिका पात्र सा

नेह से आह ! किसने तरल कर दिया ?

जल उठी कामना की स्वतः वर्तिका

शिव ने कंठस्थ फिर से गरल कर लिया

अश्रु के फूल हों नैन-थाली सजे स्वप्न के देवता पर चढ़े न कभी   

आ बसी मूर्ति जब इस हृदय-कोश में

पूत-पावन वपुष यह उसी क्षण हुआ

रच गया एक मंदिर मुखर प्रेम का

साधना से विहित दिव्य प्रांगण हुआ

फूल ही सर्वथा एक शृंगार हो, रौप्य से छत्र इसका मढ़े न कभी

रूप–अपरूप तो है जगत में बहुत

प्रेम की भावना एक सी है सदा

एक पर ही निछावर है होती प्रकृति

एक को ही ह्रदय पूजता सर्वदा 

मैंने विग्रह सजाया है जैसा यहाँ कोई वैसी ही मूरत गढ़े न कभी

अनगिनत ग्रन्थ फैले हैं संसार में

तर्क होता नहीं है कभी प्यार में

भूल जाता है यह दृश्य –जग सर्वथा

डूब जाता है जब लोक अभिसार में

जिसने आलोचना लोचनों की पढी अन्य साहित्य वह फिर पढ़े न कभी 

प्रेम है अधिकरण विश्व में सौख्य का

प्रेम सा दाह भी है किसी में नहीं

यह हंसाता भी है यह रुलाता भी है

ऐसी मीठी-चुभन है कहीं भी नहीं

कभी पावस बरसता है दृग-धार में. आँख से बूँद कोई कढ़े न कभी 

(मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment by रामबली गुप्ता on May 6, 2016 at 4:43am
वाह आदरणीय हमेशा आपके गीत पढ़ता हूँ और हर बार एक नवीन अनुभव और आनंद। गीत के माध्यम से सुंदर गेयता और प्रवाह के साथ अंत तक भावों का मनोहारी सम्प्रेषण हेतु सादर बधाई आपको।

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