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हे जग जननी आस तुम्हारा
शब्दों को देती तुम धारा
वाणी को स्वर मिलता तुमसे
कण-कण में है वास तुम्हारा |

दिनकर लेते ओज तुम्ही से
शशि की शीतलता में तुम हो
नभ गंगा की रजत धार में
झिलमिल करता सार तुम्हारा |

सिर पर रख दो वरद हस्त माँ
कलम चले अनवरत मेरी
अंतर्मन के हर पन्ने पर
लिखती हूँ उपकार तुम्हारा ||


मीना पाठक
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on May 15, 2016 at 11:00am

आदरणीया मीना पाठक जी सादर, अच्छी प्रार्थना है "हे जग जननी आस तुम्हारा" तुम्हारा या तुम्हारी. देख लें

दिनकर लेते ओज तुम्ही से,......यहाँ "लेते" शब्द भ्रान्ति पैदा कर रहा है. इसे यूँ भी कहा जा सकता है  "दिनकर का है ओज तुम्ही से"

शशि की शीतलता में तुम हो.

Comment by Meena Pathak on May 15, 2016 at 10:07am

जी ..आप बिलकुल सही हैं आ० रामबली जी ..त्रुटियों की तरफ इंगित करने के लिए आभार आप का 

Comment by रामबली गुप्ता on May 14, 2016 at 11:22pm
बहुत ही सुंदर प्रार्थना हृदय से बधाई स्वीकार करें। किन्तु एक संशय है। हर अंतरे की प्रथम दो लाइनों में तुकांतता का निर्वहन नही हो रहा। क्या मैं सही हूँ?

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