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नालायकी (लघुकथा)

"अब मुँह लटकाये क्यों बैठी हो? पहले ही कहा था कि हवा में न उड़ो, न उड़वाओ बेटे को!"

"........."

"कुछ कह रहा हूँ, सुना कि नहीं? कितना समझाया था कि ज़्यादा लाड़-दुलार ठीक नहीं। फ़रमाईशें पूरी करके उसे बिगाड़ो नहीं! झूठी तारीफ़ें कर उसे हवा में उड़ना मत सिखाओ! मान का ताप ऐसे नहीं बढ़ाओ, पसीने छूट जाएंगे! मान झूठी शान से नहीं मिलता, अच्छे काम से मिलता है समझीं। फैशन परस्ती, आडम्बर से नहीं!"

पति देव चिल्लाये जा रहे थे, पत्नी सिर झुकाये सुनती जा रही थी।

"दोस्तों में उसका मान रखने के लिए और कितने पैसे भेजता रहूं, कुछ बनकर भी तो दिखाता भला!"- पतिदेव ने तौलिये से पसीना पौंछते हुए कहा।

"बस भी करो अब, सड़ी गर्मी में ग़ुस्से का तापमान क्यों बढ़ा रहे हो?" रोते हुए पत्नी ने कहा- "तुम तो मेरा अपमान करना भर जानते हो! "

"अरे, तापमान तो तुम्हारा बेटा और तुम बढ़ा रही हो, अपमान का, हे श्रीदेवी! रईसों जैसी ज़िन्दगी जीने का शौक तुम्हें और तुम्हारे लाड़ले को चर्राया है, मुझे नहीं!"

"तुमने मुझे श्रीदेवी कहा! तो ले आओ कोई उर्मिला, फ़िल्म 'जुदाई' वाली! तुम मेरे लायक थे ही नहीं, हे आदर्शवादी!"

"बेटे को तो बना दिया न 'लायक', नालायक कहीं का! न घर का, न घाट का! न देेशी रहा, न विदेशी बना!"

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on May 27, 2016 at 5:50am
रचना पर समय देकर प्रोत्साहित करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीया कल्पना भट्ट जी।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on May 25, 2016 at 9:10pm

अच्छी कथा हुई है आदरणीय शहजाद भाई | 

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