"क्या कर रहा है बे, सब खा-पी रहे हैं और तू अपने स्मार्ट फोन में भिड़ा हुआ है!" थ्री-स्टार होटल में चल रही ज़बरदस्त पार्टी में दोस्तों के बीच बैठे दीपक ने असलम से कहा।
"माह-ए-रमज़ान का चाँद दिख गया है, मुबारकबाद के ढेरों संदेशों के जवाब दे रहा हूँ!" - असलम ने सोशल साइट्स पर अपना संदेश सम्प्रेषित करते हुए कहा और कोल्ड-ड्रिंक पीने लगा। आज वह दोस्तों से लगाई शर्त हार गया था, सो इतनी महँगी पार्टी देनी पड़ी थी।
"यार, ये तो बता कि तू भी सचमुच कल से रोज़े रखेगा, कैसे रह लेता है भूखे-प्यासे नौकरी करते हुए!" - दीपक ने फिर उसे छेड़ते हुए कहा।
"देख, दीपक, तुम सब जो पीना चाह रहे हो, पी रहे हो; जो खाना चाह रहे हो, बड़े चाव से खा रहे हो, क्योंकि तुम्हारी तीव्र इच्छा थी, कई दिनों से। मैं सिर्फ कोल्ड ड्रिंक पीकर तुम सबका साथ दे रहा हूँ न! दोस्तों मैं अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना सीख चुका हूँ , इसलिए रोज़े रखना मेरे लिए कठिन नहीं है, बल्कि माह-ए-रमज़ान से ही यह सब मुमकिन हुआ है!"
"अब चुप भी कर साधू महाराज, तू नहीं सुधरेगा!" एक दोस्त ने कटाक्ष किया।
"महाराज, हमारी तरफ़ से भी आपको रमज़ान मुबारक़ हो!" सभी दोस्तों ने चियर्स करते हुए असलम से कहा।
"आप सब को भी बहुत बहुत मुबारक़बाद" असलम खड़े होते हुए बोला- "इस माह सभी धर्मावलंबी यदि दस-बारह घंटों के रोज़े रखने का अभ्यास, प्रयास करें, तो काफी जल और अन्न बचेगा जो ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंचाया जा सकता है। यह पवित्र माह केवल भूखे-प्यासे रहने और अल्लाह की इबादत के लिए ही नहीं है, बल्कि इंसान को अपनी पाँचों इंद्रियों , इच्छाओं, और उसकी सभी भूखों को नियंत्रण में रखने का एक मास का वार्षिक प्रशिक्षण शिविर और सेमिनार है। इस से अपराध और आपराधिक प्रवृत्ति पर अंकुश भी लग सकता है!
"जय हो महाराज, जय हो!" सभी दोस्तों ने एक स्वर में कहा।
"अबे, भाषण पेल रहा है, ख़ुद तो एक महीने सेहरी और रोज़ा-अफ़्तारी में माल उड़ायेगा, हमसे बात करता है!" दीपक ने ठहाका लगाते हुए कहा।
"नहीं मेरे भाई, ऐसा नहीं है! अत्यल्प आहार से ही सेहरी और रोज़ा-अफ़्तार होता है। रोज़े में त्याग और इबादत करने वाले रोज़दार की हौसला अफ़ज़ाई हेतु कुछ अतिरिक्त स्वादिष्ट व्यंजन खाने-खिलाने की तो परम्परा चल पड़ी है, बस!" इतना कहकर असलम एकदम चुप हो गया।
"अब कह तो दे अपनी पूरी बात!" एक दोस्त ने कहा।
"अरे, धर्म-सम्प्रदाय भूल कर ज़रा उन पर भी ग़ौर फ़रमाओ, जो मेहनत मशक्कत करके भूखे-प्यासे रहकर सुबह या शाम की रोटी मुश्किल से हासिल कर पाते हैं! ग़रीबों-मुफ़लिसों की भूख-प्यास को तो हर रोज़ मिलता है इबादत का आसरा! हर रोज़ रोज़ा; कुछ घूंट पानी और कुछ निवालों पर ई़द!"
[मौलिक व अप्रकाशित]
Comment
आदरणीय शेख शहज़ाद जी, बेतक़ल्लुफ़ से मेरा आशय बेलौस (Carefree) होने से है. अपनी बाकी बातों पर आप ध्यान दें तो स्वयं ही कई उत्तर मिलेंगे. भाईजी, प्रश्न करना उचित है, लेकिन प्रश्न करने के लिए किये गये प्रश्नों पर क्या कहा जाये ? बातों को दिल पर न लेकर दिमाग पर यदि हम लें, तो रचनाकर्म में गुणात्मक सुधार होगा इसमें संशय नहीं. बाकी रचनाकार या अभ्यासकर्ता अपने विषय में क्या लेते है यह नितांत व्यक्तिगत रुचि पर निर्भर करता है. वैसे इन्हीं पन्नों में ईद के मौके पर मैंने ही अपनी पहली लघुकथा लिखी थी. वह लघुकथा तब प्रशंसित भी हुई थी.
शुभ-शुभ
आदरणीय शेख शहज़ाद भाई, रमज़ान के महीने में मन पवित्र हो..
जहाँ तक इस प्रस्तुति की बात है. भाई, इस प्रस्तुति से सिवा मौके पर कुछ कहने के अलावा और क्या लाभ हो पाया ? मुझे संवादों में भी बहुत सटीकपन नहीं दिखा, जबकि सारे दोस्त बेतकल्लुफ़ होने की पूरी कोशिश करते दिख रहे थे.
वस्तुतः, लघुकथा को लेकर मेरी समझ सवालिया हो सकती है. इस मंच पर माना भी जाता है. लेकिन एक पाठकीय प्रतिक्रिया यही होगी कि प्रस्तुति सपाट ढंग से परम्परा को भावुक शब्दों के साथ याद करती दिख रही है.
आप इस प्रस्तुति को अभ्यासकर्म के रूप में ले रहे हैं और तदनुरूप आपका प्रयास चल रहा है तो आप सदिश हैं.
शुभ-शुभ
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