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2122 2122 2122 2
झाँक कर देखा दिलों में, सो रहे हैं सब।
एक जर्जर आत्मा ही ढ़ो, रहे हैं सब।।

कोठियों में लोग खुश हैं, भ्रम में ही था मैं।
किन्तु धन के वास्ते ही, रो रहे हैं सब।।

शीर्ष पर जो लोग लगता, पा गये सब कुछ।
जाके देखा पाया खुद को, खो रहे हैं सब।।

लग रहा था लोग मन्ज़िल, के सफर पर हैं।
हूँ चकित की दूर खुद से, हो रहे हैं सब।।

बंग्ले गाड़ी सुख के साधन, था गलत ये "मत"
आँधियाँ कह कर गयीं, दुख बो रहे हैं सब।।

मौलिक-अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 30, 2016 at 8:38am
आदरनीय सुशील सरन सर सादर धन्यवाद
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 15, 2016 at 7:07pm
प्रिय जयनीत भाई सादर धन्यवाद
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 15, 2016 at 7:07pm
आदरणीय रवि सर सादर प्रणाम, बहुत दिनों बाद आशीर्वाद मिला, सादर आभार।
Comment by जयनित कुमार मेहता on June 9, 2016 at 10:34pm
आदरणीय पंकज मिश्र जी, अच्छी ग़ज़ल कही आपने।
हार्दिक बधाई!
Comment by Ravi Shukla on June 9, 2016 at 5:18pm

आदरणीय पंकज जी बधाई स्‍वीकार करें इस गजल के लिये 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 9, 2016 at 2:08pm
आदरणीय सूर्य बली जी सादर आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 9, 2016 at 2:08pm
आदरणीय राजेश दीदी सादर प्रणाम।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 9, 2016 at 2:07pm
आदरणीय श्याम नारायण सर सादर आभार।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on June 9, 2016 at 2:07pm
आदरणीय शेख शहज़ाद सर सादर प्रणाम। ग़ज़ल को आशीर्वाद प्रदान करने के लिए सादर आभार
Comment by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on June 9, 2016 at 12:33pm

अच्छी रचना । बधाइयाँ 

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