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दोहा- ग़ज़ल (जिसकी जितनी चाह है, वो उतना गमगीन (गिरिराज भंडारी )

22  22  22  22  22   22

बात सही है आज भी , यूँ तो है प्राचीन
जिसकी जितनी चाह है , वो उतना गमगीन

फर्क मुझे दिखता नहीं, हो सीता-लवलीन

खून सभी के लाल हैं औ आँसू नमकीन

क्या उनसे रिश्ता रखें, क्या हो उनसे बात

कहो हक़ीकत तो जिन्हें, लगती हो तौहीन   

सर पर चढ़ बैठे सभी , पा कर सर पे हाथ

जो बिकते थे हाट में , दो पैसे के तीन

 

बीमारी आतंक की , रही सदा गंभीर

मगर विभीषण देश के , करें और संगीन

 

कुछ तो सचमुच भैंस हैं , बाक़ी भैंस समान

कोई ये समझाये अब , कहाँ बजायें बीन

 

घर की सारी झंझटें , हो जायेंगी साफ

पिछले हों संस्कार सब , सुविधा अर्वाचीन

********************************** 

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 18, 2016 at 10:53pm

इस शानदार दोहा ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें आदरणीय गिरिराज जी।

Comment by Sulabh Agnihotri on July 16, 2016 at 3:57pm

गिरिराज जी इस बहर को - फैलुन फैलुन फाइलुन फैलुन फैलुल फाय’ क्यों नहीं कह सकते।
मेरे विचार से तो दोहे के लिये तो यही बननी चाहिये।
मैं इसे ऐसे भी कहता हूँ - गाना गाना गीत गा, गाना गाना गीत।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 15, 2016 at 9:29am

आदरणीय शेख शहज़ाद भाई , आपका हार्दिक आभार ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 15, 2016 at 9:28am

आदरणीय  प्रधान संपादक योगराज भाई , इस ग़ज़ल को फीचर कर ग़ज़ल का मान बढ़ाने के लिये आपका हार्दिक आभार ।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 14, 2016 at 2:56pm
इस बेहतरीन दोहा-ग़ज़ल को मंच पर फ़ीचर-ब्लोग-पोस्ट के रूप में चयनित होने पर तहे दिल बहुत बहुत मुबारकबाद मोहतरम जनाब गिरिराज भंडारी साहब।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 12, 2016 at 11:34pm

:-))

आप वही निरे बच्चे निकले, बंधु ! इतने दिनों मे बदला कुछ भी नहीं ! ... जाइये प्रसन्न रहिये। ..

वैसे आपके किये-कराये का कुछ अता-पता न चला । .. क्या वही पुरानी खुन्नस !?...  

कुछ अरसे बाद आपका फिर इंतज़ार रहेगा, आपकी किसी फ़ेक आइ-डी के साथ.. :-))

शुभ शुभ 

Comment by Anuj on June 12, 2016 at 10:26pm

प्रात:वन्दनीय सौरभ महाशय,

'मुझे लगता है कि आपको मेरे इस मंच होने से बहुत कष्ट है, लेकिन ये कष्ट आपको आज के बाद नहीं उठना पड़ेगा.'

लगता है आपने मेरी इस पोस्ट का आशय नहीं समझा था इसलिए ये स्पष्ट कर दूं की यह मेरी इस मंच पर आखिरी पोस्ट है. पीठ पीछे जितनी गालियां और धमकियाँ देनी है दे लीजियेगा .

प्रणाम !!!

Comment by Anuj on June 12, 2016 at 10:01pm

प्रातःवन्दनीय सौरभ महाशय,

आप आपनी कमजोरी को धमकियों और साहित्यिक गालियों से ढककर 'खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे वाली' वाली कहावत क्यों चरितार्थ कर रहे हैं. मुझे आप बेकार डराने और धमकाने की कोशिश कर रहे है. डर वहां होता है जहाँ लालच होता है और आपसे क्या पाने का लालच है कि मैं डरूंगा. आपका सद्ज्ञान मै इसी ब्लाग पर देख चूका हूँ. आपका सदव्यवहार देख ही रहा हूँ. इन दोनों में से कुछ भी मुझ नाचीज के लेने लायक नहीं है. मै चमचा बन के जीने के लिए पैदा नहीं हुआ हूँ. वो भी आप जैसी महान आत्मा का चमचा.

'मुझे ही नहीं, आदरणीय अनुज महोदय, आपके आचरण और व्यवहार से पूरे प्रबन्धन को कष्ट हुआ करता है'

बेकार इस मामले में आप पूरे मंच की आड़ ले रहे हैं यह मेरा और आपका व्यक्तिगत मामला है. ये मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि आप को मुझसे व्यक्तिगत खुन्नस है.

मेरी आड़ लेकर सारे सदस्यों पर चीखना-चिल्लाना धमकाना OBO जैसे लोकतान्त्रिक साहित्यिक मंच की संस्कृति के अनुरूप नहीं है. इसे फासीवादी साहित्यिक संस्कृति कहते हैं.

'जो उच्छृंखल आचरण के साथ पटल की चर्चाओं और रचनाओं में बकवाद की छौंक लगाया करते हैं.'

सिर्फ इसी ब्लाग को देखा जाए तो पता चल जाएगा की किसका आचरण उच्छृंखल और बकबादी रहा है.

नम्रता छोटों की ही मजबूरी नहीं होती मान्यवर ! सबसे पहले बड़ों को इसे आचरण में उतार कर दिखाना पड़ता है.

'समरस माहौल बनाते हुए..'  'विष्टा डालने राक्षस...'

क्या समरसता है! और कितने सुंदर शब्दों से आप इस मंच को सजा रहे है!! आप कितने भद्र है आपकी भद्रता को प्रणाम !!!

'आगे से आपको समझाना और अगाह नहीं करना पड़ेगा.'

आपके डराए से मैं डर तो सका नहीं और आप जैसे समझदार के समझाए से समझ भी नहीं सकूंगा और आपकी आगही इतने ऊंचे दर्जे की है कि मैं आगाह भी नहीं हो सकूंगा.

इस तरह से डराने धमकाने और गाली-गलौज करने के बेहतर है आप सर्वसमर्थ हैं मेरी सदस्यता रद्द करें. किस्सा ख़त्म ! 

जाहिर सी बात है इस चीज से आप से ज्यादा आप ज्यादा प्रसन्नता किसी और को नहीं होगी.

और जाहिर सी बात है अब मुझे भी इस में प्रसन्नता होगी.

'आपकी समझ को शीघ्र प्रणाम किया जायेगा.'

प्रणाम करने के लिए धमकी देने की जरूरत नहीं होती सिर्फ आपने हाथ जोड़ने की जरूरत होती है.

प्रणाम !!!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 12, 2016 at 6:04pm

आदरणीय बृजेश भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 12, 2016 at 6:04pm

आदरणीय अनुज भाई, आ. सौरभ भाई जी की बात को और आगे बढ़ाते हुये मै ये और कहना चाहता हूँ , कि '' ओ बी ओ एक आत्मीय सम्बन्धों का परिवार है महज़ एक साहित्यिक साइट ही नही है । यहाँ सभी एक दूसरे से सीखते हैं और सिखाते भी हैं , लेकिन वार्तालाप हमेशा आत्मीय और मर्यादा की सीमाओं मे ही होता है । और अब कुछ रू बरू मुलाकातों के बाद तो मै ये भी कह सकता हूँ कि मुलाकात होने पर भी उन्हीं आत्मीय सम्बन्धों को हम व्यवहारिक रूप मे भी पाते हैं । इन्ही आत्मीय व्यवहार की आशा हम न केवल आपसे वरन सभी ओ बी ओ परिवार के सदस्यों से करते हैं । आशा है आप इस अहम बिन्दु का खयाल रखेंगे और सीखने सिखाने की इस परंपरा में अपना अमूल्य सहयोग देंगे ।

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