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गंग-जमन मिल जायें ये इच्छा भी है
बम-बन्दूकें लेकर वो बैठा भी है
ठक ठक करते रहना पड़ता है, लाठी
अब शहरों मे सापों का डेरा भी है
सूरज की चाहत पर मर जाने वाला
घुप्प अँधेरों के रिश्ते जीता भी है
जिसे मंच ने कल नदिया का नाम दिया
क्या सच में उसमें पानी बहता भी है ?
बेंत नुमा हर शब्द शब्द है झुका झुका
अर्थ मगर उसका ऐंठा ऐंठा भी है
तू भी तो कुछ अच्छी बातें कह देता
गाँव अगर मेरा है तो तेरा भी है
कुछ तो सूरज भी लगता है अनमन सा
कुछ तो बादल ने उसको घेरा भी है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय हर्ष भाई , हौसला अफज़ाई का हथे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीय वर्तमान परिदृश्य को बखूबी दर्शाती इस शानदार ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाई स्वीकार करें सादर प्रणाम के साथ
लाजवाब रचना है बहुत बहुत बधाई आपको सादर , |
"
ठक ठक करते रहना पड़ता है, लाठी
अब शहरों मे सापों का डेरा भी है"
वाह आदरणीय गीरी साहब..बहुत खूब कहते हैं आप.....आपके अहसास दिल को छूते हैं | दिली दाद !!
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