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गज़ल - गाँव अगर मेरा है तो तेरा भी है ( गिरिराज भंडारी )

22   22   22   22   22  2    

गंग-जमन मिल जायें ये इच्छा भी है

बम-बन्दूकें लेकर वो बैठा भी है

 

ठक ठक करते रहना पड़ता है, लाठी

अब शहरों मे सापों का डेरा भी है

 

सूरज की चाहत पर मर जाने वाला

घुप्प अँधेरों के रिश्ते जीता भी है  

 

जिसे मंच ने कल नदिया का नाम दिया

क्या सच में उसमें पानी बहता भी है ?

 

बेंत नुमा हर शब्द शब्द है झुका झुका

अर्थ मगर उसका ऐंठा ऐंठा भी है   

 

तू भी तो कुछ अच्छी बातें कह देता

गाँव अगर मेरा है तो तेरा भी है

 

कुछ तो सूरज भी लगता है अनमन सा

कुछ तो  बादल ने उसको घेरा भी है

*********************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by गिरिराज भंडारी on June 26, 2016 at 9:54am

आदरणीय हर्ष  भाई , हौसला अफज़ाई का हथे दिल से शुक्रिया आपका ।

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 26, 2016 at 9:40am
तू भी तो कुछ अच्छी बातें कह देता
गाँव अगर मेरा है तो तेरा भी है
यह एहसास हो जाए हर एक को तो क्या बात है। बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल पर , आदणीय गिरिराज भंडारी जी , सादर।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on June 26, 2016 at 8:58am
वाह्ह!बहुत ख़ूब।

कुछ तो सूरज भी लगता है अनमन सा
कुछ तो बादल ने उसको घेरा भी है.....

सादर नमन
Comment by Mahendra Kumar on June 25, 2016 at 1:59pm
सूरज की चाहत पर मर जाने वाला
घुप्प अँधेरों के रिश्ते जीता भी है

जिसे मंच ने कल नदिया का नाम दिया
क्या सच में उसमें पानी बहता भी है ?

इस शानदार ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय गिरिराज सर!
Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 25, 2016 at 1:52pm

आदरणीय वर्तमान परिदृश्य को बखूबी दर्शाती इस शानदार ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाई स्वीकार करें  सादर प्रणाम के साथ 

Comment by Shyam Narain Verma on June 25, 2016 at 12:46pm
लाजवाब रचना है बहुत बहुत बधाई आपको सादर ,
Comment by Harash Mahajan on June 25, 2016 at 12:14pm

"

ठक ठक करते रहना पड़ता है, लाठी

अब शहरों मे सापों का डेरा भी है"
वाह आदरणीय गीरी साहब..बहुत खूब कहते हैं आप.....आपके अहसास दिल को छूते हैं | दिली दाद !!

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