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लजाये भला क्यूँ- ग़ज़ल

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ग़ज़ल में एक नया प्रयास- #कुण्डलियाँ# शैली में

बतायें, तो मन में समाये भला क्यूँ।
समाये तो इसको सताये भला क्यूँ।।

सताये अगर तो बतायें ज़रा ये।
अदाओं से इसको रिझाये भला क्यूँ।।

रिझाये तो सपने जवाँ हो गये सब।
जगा कर के चाहत जगाये भला क्यूँ।।

जगाये अगर रात भर आप हमको।
तो घर से न निकले लजाये भला क्यूँ।।

लजाये भी तो सबसे पहले लजाते।
निगाहें निगाह से मिलाये भला क्यूँ।।

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 5, 2016 at 1:46pm
आदरणीय गिरिराज सर सादर प्रणाम, आखरी शेर के सानी मिसरे में "निगाह" का "ह" साइलेंट रहेगा, 1 मात्रा घटाकर ही पढ़ेंगे।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 5, 2016 at 1:43pm
आदरणीय रवि सर सादर प्रणाम, यद्यपि मैंने ग़ज़ल को ग़ज़ल बनाये रखने का प्रयास किया है, किन्तु अगर ऐसा है तो फिर चेक करूँगा। आप लोगों के आशीर्वाद से ही आगे बढ़ रहा हूँ। सादर धन्यवाद
Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 5, 2016 at 1:38pm

आदरणीय पंकज जी रचना पर इस नून्तन प्रयोग के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें . आदरनीय रवि सर और आदरणीय गिरिराज भाईसाब की राय सर्वथा उचित है ..इस नए प्रयोग के लिए बधाईयों के साथ सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 4, 2016 at 3:32pm

आदरणीय पंकज भाई , अच्छा प्रयोग है , ग़ज़ल भी अच्छी है । दिली बधाइयाँ स्वीकार करें ।

निगाहें निगाह से मिलाये भला क्यूँ।।  ये मिसरा बेबहर है , देख लीजियेगा ।

Comment by Ravi Shukla on July 4, 2016 at 1:28pm

आदरणीय पंकज जी नये प्रयोग के लिये बधाई  पर इस कोशिश में गजल कहीं पीछे रह गई और आखिरी शेर के सानी में भी हमें अटकाव लग रहा है आपने तक्‍तीअ किस प्रकार की है । सादर 

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