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आदरणीय पंकज भाई , गज़ल अच्छी हुई है , भाव अच्छे हैं हार्दिक बधाइयाँ ।
दो बात कहनी है -- 1 - अरूज के अनुसार ये बहर सही है नही मै नही जानता , शंका है
अगर ये बहर सही भी है तो -
2- अँधेरा को आप 222 लिये हैं , इसे 122 मे बान्धना चाहिये ( अंतिम शे र का उला देखें )
आदरणीय पंकज जी इस गजल केे भाव अच्छे लगेे बधाई स्वीकार करें ।
कैद हो रहने से बेहतर, चलो बंजारा बनें।
घुट के यूँ जीने से बेहतर, चलो आवारा बनें।।
देख पैसे की हवस हमको है ले आई कहाँ।
चल के जंगल में रहें आदमी दोबारा बनें।।
वाह अादरणीय ग़ज़ब के अहसास पिरोये हैं अपने अदरणीय इस दिलकश ग़ज़ल की प्रस्तुति मेंं। हार्दिक बधाई सर।
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