गिरा हुआ हूँ मुझको उठाओ कभी-कभी
गिरा हुआ हूँ मुझको
उठाओ कभी-कभी
आँखों में यूंही लौट के,
आओ कभी-कभी
हसरत थी कि झूम के,
होंठों को चूम लूं
हौसले को मेरे,
बढ़ाओ कभी-कभी
जो भी मिला वही मुझे,
कुछ दाग़ दे गया
दागों की दास्ताँ भी,
सुनाओ कभी-कभी
राहों में रोक कर मुझे,
दहला रहे सवाल
इनके जवाब लेके भी,
आओ कभी-कभी
तुझे साथ लेके चलने पे,
ज़माने को ऐतराज
मैं थक रहा हूँ उसको,
बताओ कभी-कभी
अब तो कामयाबी के,
नुस्खे भी बिक रहे
ऐसे हकीम हमसे भी,
मिलाओ कभी-कभी
मौलिक एवं अप्रकाशित
सुधेन्दु ओझा
Comment
आदरनीय सुधेन्दु भाई , आपकी रचना के भाव बहुत अच्छे लगे , आपको हार्दिक बधाई ।
अगर आप गज़ल कहनाक़ चाहते थे तो ये रचना ग़ज़ल की श्रेणी मे नही रखी जा सकेगी , गज़लें किसी बहर मे कही जातीं है , और ग़ज़ल व्याकरण सम्मत भी होनी चाहिये , काफिया -रदीफ ज़रूर आपने सही निभा लिया है । अगर ये ग़ज़ल नही है तो कोई बात नही , अगर आपने गज़ल कहने की कोशिश की है तो ज़रूर इसमे बहर की कमी है ।
आदरणीय सुधेंदु ओझा जी सादर, आपने जो टेक ली है 'कभी-कभी' आपने गजल कही है तो रदीफ़ मान लें.वह शुरू से ही गलत लग रही है. देख लें. सादर.
इस रचना और रचनाकार की अवधारणा पर सुधीजन चाहें तो ध्यान दें।
सादर
प्रिय डॉ आशुतोष मिश्रा जी,
मैं शास्त्रीय पद्धति से गजल नहीं लिखता हूँ। इसलिए मात्राओं का कोई चक्कर इस रचना के साथ नहीं है।
गाते, गुण-गुनाते समय यदि किसी शब्द से खलल पैदा हो रहा हो तो उसी अर्थ से मिलता-जुलता शब्द उस स्थान पर रखा जा सकता है। यह स्वतन्त्रता म्यूजिक कम्पोज़र को है।
आपको कहाँ समस्या हुई और आपने उस थान पर क्या शब्द रखा, अवश्य बताइएगा।
सादर,
सुधेन्दु ओझा
भाई सुधीन्द्र जी इस रचना पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करीं ..इस बिधा के बारे में मुझे जानकारी नहीं है मैंने गुनगुनाने की कोशिस की कही कहीं पर अटक रहा हूँ ..इसमें मात्राओं का क्या हिसाब होता है इसकी जानकारी न होने के कारन ही शायद ऐसा हो रहा होगा ..हार्दिक बधाई के साथ
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