22 22 22 22 22 22 – बहरे मीर
आज उठाये घूम रहे हैं जिनको सर में
वो सब पटके जाने लायक हैं पत्थर में
अपनी बीमारी को बीमारी कह सकते
इतनी भी ताक़त देखी क्या, ज़ोरावर में ? (ताक़तवर)
फेसबुकी रिश्ते ऐसे भी निभ जाते हैं
वो अपने घर में कायम, हम अपने घर में
रोज उल्टियाँ वैचारिक कर देने वालों
चुप्पी साधे क्यों रहते हो कुछ अवसर में ?
जब समाचार में गंग-जमन का राग लगे, तुम
मन्दिर-मस्ज़िद खेल खिलाओ किसी शहर में
तुम अपने को उन लोगों में जोड न लेना
बहुत फर्क है गद्दारी में और गदर में
जब से भाषायी झग़ड़े का त्याग किया है
वो कहते हैं तेरा मिसरा नहीं बहर में
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , सराहना कर रचना को आशीष देने के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय रवि भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका । आपने सही कहा आजकल इसी बहर का अभ्यास कर रहा हूँ , ये बहर मात्रा पर कम लय पर जियादा आधारित है , जिसे साधना ज़रूरी है ।
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फेसबुकी रिश्ते ऐसे भी निभ जाते हैं
वो अपने घर में कायम, हम अपने घर में//
//आज उठाये घूम रहे हैं जिनको सर में
वो सब पटके जाने लायक हैं पत्थर में//
बहुत ही ज़ोरदार ख्याल हैं। आपको हार्दिक बधाई, भाई गिरिराज जी।
आदरणीय गिरिराज जी अाज कल इस बहर पर आप बहुत काम कर रहे है और अच्छा कर रहे है इस गजल के लिए बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें
तुम अपने को उन लोगों में जोड न लेना
बहुत फर्क है गद्दारी में और गदर में अच्छा शेर हुआ है
आदरनीय अशोक भाई , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
// वो सब पटके जाने लायक हैं पत्थर में //
आदरणीय इस मिसरे मे तो सभी शब्द फा ( 2 ) मात्रिक ही लिया हूँ , अतः मुझे लगता है शायद पढ़के के ढंग मे कुछ अंतर होगा , इस मिसरे मे कहीं मात्रा गिरी ही नही है ! फिर भी कुछ सलाह हो तो स्वागत है , मै सुधार के लिये तत्पर हूँ ।
आदरनीय महेन्द्र भाई , सराहना के लिये आपका आभार ।
जब से भाषायी झग़ड़े का त्याग किया है
वो कहते हैं तेरा मिसरा नहीं बहर में............वाह ! वाह ! मिसरे तो सारे बह्र में हैं साहब. मगर उठाये सर में, पटके पत्थर में, कुछ खटका है. सादर.
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