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ये रूप रंग गंध सभी शान बन गए
कुछ रोज में ही जो मेरी पहचान बन गए
नफरत के सिलसिले जो चले धूप छाँव बन
इंसानियत के शब्द भी मेहमान बन गए
तुम-तुम न रह सके न ही मैं-मैं ही बन सका
दोनों ही आज देख लो शैतान बन गए
खेमों में बँट गए हैं सभी आज इस तरह
कुछ राम बन गए कई रहमान बन गए
हद के सवाल पर या कि जिद के सवाल पर
हद भूलकर गिरे सभी नादान बन गए.
मौलिक/अप्रकाशित.
Comment
आदरणीय अशोक भाई , बेहतरीन गज़ल कही आपके , दाद के साथ मुबारकबाद कुबूल करें ।
नफरत के सिलसिले जो चले धूप छाँव बन
इंसानियत के शब्द भी मेहमान बन गए -- बहुत खूब !
आदरणीय रवि शुक्ला जी सादर, आपको प्रयास अच्छा लगा इसके लिए दिल से आभार. आदरणीय जब इतने उस्ताद शायर मंच पर हों तो अवसर का लाभ लेने में ही भलाई है. यही सोचकर कलम को थोड़ा इधर मोड़ लिया है. सादर.
आदरणीय आशोक रक्ताले जी छंद से इतर आपको गजल कहते भी देख रहे है अच्छे अशआर कहे है आपने सुखद है ये प्रयास आपको बहुत बहुत बधाई इसके लिये ।
उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय मनन कुमार सिंह जी. सादर.
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