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रणवीर सिंह और अशोक कालकर  दोनो ने गुड़गाँव मे एक साथ  एक मल्टीनेशनल कंपनी ने ज्वाइन किया था । दो भिन्न संस्कृति, मातृभाषा के वे तीसरी तरह की संस्कृति मे रचने-बसने का प्रयत्न करने लगे थे। धीरे-धीरे आपसी मित्रता गहरा गई. ऑफ़िस के केंटिन मे चाय पीते -पीते रणवीर बोला--

"यार अशोक! ये बता तुम्हारे प्रांत के नेता लोग बडे अजीब है, स्थानीय लोगो को  काम के अवसर खत्म ना हो इसलिए आरक्षण की मांग करते है फ़िर भी तुम अपना प्रांत छोड़कर  यहाँ काम पर आए हो ।"

अशोक  कुछ ना बोला, चुपचाप चाय का घूँट भरता रहा । फिर अचानक बोल उठा..

" यार रणवीर!  ये बताओ तुम्हारे प्रांत के बारे मे भी तो  यह  कहा जाता है कि तुम लोग बडे प्रतिभाशाली और बुद्धिमान होते है ।ज्यादातर ब्युरोक्रेट्स भी वही..."
 
रणवीर के पास भी कुछ जवाब नहीं था ।
बस मौन...

 दोनो एक दूसरे के गले  मे हाथ डाले चल पडे और अपनी-अपनी कुर्सी पर बैठ काम मे मग्न हो गये ।

मौलिक एवं प्रकाशित

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Comment by Shubhranshu Pandey on July 24, 2016 at 8:14pm

आदरणीया नयना जी, आदरणीय रवि जी के कथन पर ध्यान दें. वैसे सुन्दर भाव के साथ कथा कही गयी है सादर.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 24, 2016 at 7:07pm
हार्दिक बधाई
Comment by नयना(आरती)कानिटकर on July 22, 2016 at 12:29pm

आ.रवि प्रभाकर भैया  प्रणाम . आपने लघुकथा को बारिकी से पढ जो सुझाव दिए है उनपर जरुर गौर करती हूँ. असल मे " तुम लोग बडे प्रतिभाशाली और बुद्धिमान होते है ।ज्यादातर ब्युरोक्रेट्स भी वही..."  भी उसी प्रदेश को दर्शाता था सो मैने उसे  अनकहा  रख दिया. रचना लिखने के बाद  " शिर्षक" के लिए पूर एक दिन चिंतन किया लेकिन सफ़लता नही मिली .अब फ़िर से दिमाग पर जोर डालती हूँ.  .आशा करती हूँ आपका मार्गदर्शन मिलता रहेगा. आभार आपका

Comment by Ravi Prabhakar on July 22, 2016 at 7:50am

आदरणीय ताई ! लघुकथा में जो अनकहा छोड़ा गया है / ज्यादातर ब्युरोक्रेट्स भी वही..."/ उस संदर्भ में लघुकथा में कोई संकेत नहीं दिया गया है जिससे लघुकथा कुछ पहेलीनुमा सी बन गई है। यदि उस अनकहे हो आप लघुकथा का शीर्षक बना देती तो ना सिर्फ वह अनकहा आसानी से समझ में आता बल्‍िक शीर्षक ही कथा को परिभाषित कर जाता। पात्रों के नामों का बहुत ही बढ़ीया चयन किया है जिससे उनका प्रदेश सुस्‍पष्‍ट हो रहा है। सादर शुभकामनाएं ।

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