क्या हूँ मैं, कौन हूँ मैं,
कहाँ जा रहा हूँ,
खुद को टटोला तो पाया,
अनजान मंजिल है, अँधेरी राह है ।
और मैं एक अनजान राही हूँ ।।
भटकने का खौफ़ है ।
तो मंजिल की उम्मीद भी ।।
उम्मीद कम है-खौफ़ ज़्यादा ।
फिर भी उम्मीद की चादर में खौफ़ को बाँधे चले जा रहा हूँ ।।
ढांढस बंधाते हिम्मत जुटाते चला जा रहा हूँ ।
मंज़िल मिलेगी यही सोच कर बढे जा रहा हूँ ।।
चले जा रहा हूँ , बस चले जा रहा हूँ ।
बदन कहता है रुक जा, सुस्ता ले थोड़ी देर ।
दिल कहता है चले जा , कहीं हो जाये न देर ।।
थक जाता हूँ तो उम्मीद की चादर ओढ़ कर सो जाता हूँ ।
लेकिन चादर खुलते ही आज़ाद खौफ़ से डर जाता हूँ ।।
फिर उठता हूँ, उम्मीद की चादर में खौफ़ को समेटे ।
खड़ा होता हूँ, चल पड़ता हूँ नव ऊर्जा तन पे लपेटे ।।
सोचता हूँ मिलेगी मंजिल, आज नहीं तो कल ।
बस बिना रुके, बिना ठहरे, चला चल, चला चल, चला चल ।।
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय आशुतोष भाई , अच्छी लगी आपकी कविता , हार्दिक बधाई । समानार्थी शब्दों का दुहराव कविता को कमज़ोर कर देता है , इससे बचना चाहिये ।
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