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क्या हूँ मैं, कौन हूँ मैं,
कहाँ जा रहा हूँ,

खुद को टटोला तो पाया,

अनजान मंजिल है, अँधेरी राह है ।
और मैं एक अनजान राही हूँ ।।

भटकने का खौफ़ है ।
तो मंजिल की उम्मीद भी ।।

उम्मीद कम है-खौफ़ ज़्यादा ।
फिर भी उम्मीद की चादर में खौफ़ को बाँधे चले जा रहा हूँ ।।

ढांढस बंधाते हिम्मत जुटाते चला जा रहा हूँ ।
मंज़िल मिलेगी यही सोच कर बढे जा रहा हूँ ।।

चले जा रहा हूँ , बस चले जा रहा हूँ ।

बदन कहता है रुक जा, सुस्ता ले थोड़ी देर ।
दिल कहता है चले जा , कहीं हो जाये न देर ।।

थक जाता हूँ तो उम्मीद की चादर ओढ़ कर सो जाता हूँ ।
लेकिन चादर खुलते ही आज़ाद खौफ़ से डर जाता हूँ ।।

फिर उठता हूँ, उम्मीद की चादर में खौफ़ को समेटे ।
खड़ा होता हूँ, चल पड़ता हूँ नव ऊर्जा तन पे लपेटे ।।

सोचता हूँ मिलेगी मंजिल, आज नहीं तो कल ।
बस बिना रुके, बिना ठहरे, चला चल, चला चल, चला चल ।।

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by Ashutosh Kumar Gupta on August 2, 2016 at 3:15am
आदरणीय श्री गिरिराज जी आपके मार्गदर्शन के लिए अनेक अनेक धन्यवाद आगे से ध्यान रखूंगा साभार ।
Comment by Ashutosh Kumar Gupta on August 2, 2016 at 3:13am
धन्यवाद आदरणीय सुरेश कुमार जी
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on August 1, 2016 at 5:27pm
जिन्दगी की दौड को दर्शाती बहुत ही सुन्दर रचना है । आदरणीय श्री आशुतोष कुमार जी हार्दिक बधाई ।

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Comment by गिरिराज भंडारी on August 1, 2016 at 11:29am

आदरणीय आशुतोष भाई , अच्छी लगी आपकी कविता , हार्दिक बधाई । समानार्थी शब्दों का दुहराव कविता को कमज़ोर कर देता है , इससे बचना चाहिये ।

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 1, 2016 at 7:12am
बहुत खूब । आपकी यह कविता पसंद आई । हार्दिक बधाई।
Comment by Ashutosh Kumar Gupta on July 30, 2016 at 1:14pm
धन्यवाद प्रतिभा जी, आपने सही सार पकड़ा है, और ये भी सत्य ही है कि मनुष्य के अन्तर्मन में डर और आशा के बीच द्वंद चलता रहता है फलतः डर की विजय कुछ अनुभव के साथ असफलता दे जाती है और आशा की विजय सफलता के साथ आत्मविश्वास।
पुनः कोटि कोटि धन्यवाद सादर
Comment by Ashutosh Kumar Gupta on July 29, 2016 at 5:10pm
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर जी, आभार
Comment by Samar kabeer on July 29, 2016 at 2:50pm
जनाब आशुतोष कुमार जी आदाब,बहुत अच्छी लगी आपकी कविता,इस प्रस्तुति के लिये बधाई स्वीकार करें ।

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