सरकारी अनुदान - ( लघुकथा ) -
"अरी ओ कुसुमा, अभी तू इधर ही खड़ी है! जल्दी से फारिग होकर आजा! देख सूरज निकल आया है"!
"वही तो सोच रही हूं अम्मा, किधर जायें,चारों तरफ़ तो खेत खलिहान में आदमी लोग दिख रहे हैं"!
"इसलिये तो कहते हैं बिटिया कि अंधियारे में ही हो आया करो"!
"अम्मा, तुम तो खुद ही देख चुकी हो कि पिछले महीने दो लड़कियों को जंगली जानवर उठा ले गये"!
"अरे बिटिया, गाँव देहात में यह सब कहानी किस्से तो चलते ही रहते हैं!कौन जाने सच क्या है"!
"पर अम्मा, तुम घर में शौचालय क्यों नहीं बनवा लेती!अब तो सरकार भी अनुदान देती है"!
"सोच तो हम भी यही रहे हैं, बिटिया!पर वह अनुदान मंजूर करवाने के लिये जो अनुदान देना पड़ता है, वह कहाँ से लायें"!
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय डॉ विजय शंकर जी!लघुकथा को समय देने एवम उसके विषय की विस्तृत विवेचना हेतु विशेष आभार!
हार्दिक आभार आदरणीय राजेश कुमारी जी !
भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों पर क्ररारा कटाक्ष करती हुई बेहतरीन लघु कथा हार्दिक बधाई आद० तेजवीर सिंह जी |
हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर साहब जी!
हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लड़ीवाला जी!
हार्दिक आभार आदरणीय नीता कसार जी!
हार्दिक आभार आदरणीय कल्पना जी!
भ्रष्टाचार यहाँ जोंक की तरह फ़ैल चुका है | इसके चलते सारी सरकारी प्रयास नाकाम हो रहे है | अच्छी सन्देश देती लघु कथा
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