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आदरणीया सरिता जी नारी को आधार बना कर कही गई ग़़ज़ल का स्वागत है आपके द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार बहर पर गजल को देखा ।
मेहंदी सुहाग चूड़ा, कमजोरी की निशानी,
हाथों में लो कलम तुम, तलवार सा चलाओ।। इस शेर में आप स्वयं ही नारी के शृगांर को कमजाेरी की निशानी बता रही है कैसे ?
देते हो दूसरों को, उपदेश जिंदगी के,
कुछ तो करो शरम अब, खुद भी तो आजमाओ।।
कुछ शर्म तो करो अब खुद भी तो आजमाओ । शर्म को इस तरह से भ्ाी उपयोग में ले सकती हैंं आप । क्या आजमाने की बात हो रही हैै
छोडो मुहब्बतों को, जीना नहीं है आसां,
है जिंदगी जहर जो, दो घूंट फिर पिलाओ।।
है जह्र जिंदगी जो दो घूंट फिर पिलाओ इस मिसरे में में जह्र (21) को आप इस तरह भी प्रयोग कर सकती है
बनकर रही नदी तुम, सागर रहा ज़माना,
जीवन भरा "सरिता", सैलाब तुम वो लाओ ।। मकते में सरिता बह्र के अनुसार वज्न में नहीं है
आपके प्रयास के लिये बहुत बहुत बधाई स्वीकार करेंं
बहुत सुन्दर बहुत सार्थक.....बधाई
आदरणीया सरिता जी , नारी अस्मिता कर अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइया ।
आदरणीया , यहाँ गज़ल के ऊपर बहर लिखने की परम्परा है , ताकि सीखने सिखना का उद्देश्य पूरा हो , बहर निभाने मे अगर कुछ कमी रह गई हो तो उचित सलाह जानकार दे सकें ।
मेरा अन्दाज़ा मात्रिक बहर ( बहरे मीर ) का है । मक्ते के सानी को पढने मे कुछ अटकाव है ।
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