बहुत डरता है ......
बहुत डरता है
मनुष्य अपने जीवन के
क्षितिज को देखकर
अपनी आकांक्षाओं के
असीमित आकाश में
जीवन के
सूक्ष्म रूप को देख कर
कल्प को अल्प
बनता देखकर
सच ! बहुत डरता है
मुखौटों को जीने से
थक जाता है
संवदनाओं के
आडंबर के बोझ ढोने से
हार जाता है
दुनिया के साथ जीते जीते
डर जाता है
हृदय की गहन कंदराओं में
अपने ही अस्तित्व की
मौन उपस्थिति से
हाँ ! बहुत डरता है
मनुष्य
अपने आरम्भ की
दीर्घ राह का
अंतिम छोर देखकर
जीवन की पगडंडियों का
अंतिम मोड़ देखकर
निर्जीव देह पर
दुनियावी मुखौटों का
दिखावटी विलाप देखकर
उफ्फ !
ये हर पल डरता मनुष्य
क्यों यथार्थ को
नहीं जी पाता
काया को जीते जीते
आकांक्षाओं की अग्नि में
देह के संग संग
ये स्वयं भी
अपने यथार्थ के साथ
चिरनिद्रा में
सो जाता है
सुशील सरना
मौखिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आपके आत्मीय स्नेह से रचना उपकृत हुई। आपकी सूक्ष्म दृष्टि का दिल से आभार। पढ़ने के बाद भी टंकण त्रुटि रह गयी। अभी दुरुस्त किये देता हूँ। तहे दिल से आपका शुक्रिया।
आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण जी आपके आत्मीय स्नेह से रचना उपकृत हुई। तहे दिल से आपका शुक्रिया।
आदरणीय सुशील भाई , अच्छी लगे आपकी वैचारिक प्रस्तुति , हार्दिक बधाई ।
अस्तितिव को अस्तित्व कर लीजियेगा
आदरणीय Harash Mahajan जी प्रस्तुति में निहित भावों को आत्मीय सम्मान देने का दिल से आभार।
आ० Sushil Sarna जी बहुत ही सुंदर पेशकश !!
"बहुत डरता है
मनुष्य अपने जीवन के
क्षितिज को देखकर"
साभार !!
आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी प्रस्तुति में निहित भावों को आत्मीय सम्मान देने का दिल से आभार।
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