22 22 22 22 22 2 -- बहरे मीर
सब कुछ जाना पहचाना सा लगता है
मेरा ‘मै’ ही अनजाना सा लगता है
जिसकी अपने अन्दर से पहचान हुई
वो फिर सबको दीवाना सा लगता है
मन का खाली पन फैला यूँ वुसअत में
जग सारा अब वीराना सा लगता है
घर के हर कमरे की चाहत अलग हुई
बूढ़ा छप्पर गम ख़ाना सा लगता है
दिल का हर कोना दिखलाये हैं लेकिन
हर दिल में इक तहखाना सा लगता है
अपनेपन के अंदर भी अब बुना हुआ
षड़यंत्री ताना बाना सा लगता है
मूछें आयीं चेहरे पर, तो जाने क्यूँ
सच कहना भी, समझाना सा लगता है
कहो नींद से अब आती है, आ जाये
दिल मेरा कुछ कुछ माना सा लगता है
साथ निभाता है हँसने में आँसू भी
अश्क़ों से कुछ याराना सा लगता है
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..बहरे मीर की इस उत्कृष्ट प्रस्तुति पर पुनः आपको हार्दिक बधाई सादर प्रणाम के साथ
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