अँखियों में अँखियाँ डूब गई,
अँखियों में बातें खूब हुई.
जो कह न सके थे अब तक वो,
दिल की ही बातें खूब हुई.
*
हमने न कभी कुछ चाहा था,
दुख हो, कब हमने चाहा था,
सुख में हम रंजिश होते थे,
दुख में भी साथ निबाहा था.
*
ऑंखें दर्पण सी होती है,
अन्दर क्या है कह देती है.
जब आँख मिली हम समझ गए,
बातें अमृत सी होती है.
*
आँखों में सपने होते हैं,
सपने अपने ही होते हैं,
आँखों में डूब जरा देखो,
कितने गम अपने होते हैं?
*
जब रिश्ते रिसते थे हरदम,
आँखों से कटते थे तुम हम,
आँखों में कष्ट हुई जबसे,
कुछ और सन्निकट पहुँचे हम.
*
लीला प्रभु की भी न्यारी है,
जब चलने की तैयारी है,
बढ़ता जाता है प्रेम तभी,
आँखें फेरन की बारी है.
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय जवाहर जी इस सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई आपकी रचना के माध्यम से आदरणीय सौरभ सर द्वारा इतनी बिस्तृत व्याख्य पढने को को मिली ..जो सोने पर सुहागे जैसा है रचना पर पुनः बधाई के साथ सादर
आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी, आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए बहुत बहुत आभार! सादर!
आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब, उत्साह वर्धन के लिए हार्दिक आभार! इस मंच की यही खासियत है कि यहाँ बहुत कुछ सीखने समझने के अवसर रहते हैं. सादर!
आदरणीय समर साहब के प्रश्न और आदरणीय सौरभ सर के विस्तृत उत्तर से बहुत सारी भ्रांतियां दूर हुईं. मेरे मुक्तक पर इतनी विस्तृत चर्चा से मैं तो भावविभोर हो गया और आगे और भी लिखने का प्रयास करूंगा, क्योंकि यह अन्य छंदों की अपेक्षा ज्यादा सरल है. जहाँ तक मुझे जानकारी है डॉ. कुमार बिस्वास मुक्तक ही लिखते हैं और उसे सस्वर पाठ करते हैं. हाँ उनके मुक्तक बहुत ही सधे हुए गेय होते हैं आप सबलोगों का हार्दिक आभार! सादर!
आदरणीय समर साहब, जिन सज्जन ने आपसे वैसी बातें की हैं, वे पता नहीं कैसी रचना प्रस्तुत कर रहे थे। क्यों कि हिन्दी पद्य-साहित्य में ’मुक्तक’ कई प्रारूपों के होते हैं।
नयी कविता के कवि भी मुक्तक लिखते हैं, जो अतुकान्त हुआ करते हैं और कई अर्थों में क्षणिका या शब्द-चित्र के नाम से भी जाने जाते है। फिर उर्दू बहरों से प्रभावित चार पंक्तियों के मुक्तक भी हुआ करते हैं, जिनका विन्यास मात्रिक भी हो सकता है। जैसा कि प्रस्तुत पोस्ट में आदरणीय जवाहर भाई के मुक्तक हुए हैं।
कुछ मुक्तक गेय कविता की तरह होते हैं जो मात्रिक विधान के होते हैं।
फिर, छन्द के विधान से भी मुक्तक होते हैं, जो घनाक्षरी और सवैया हैं। दोहे भी मुक्तक के अन्यतम उदाहरण हैं। एक घनाक्षरी या एक सवैया या एक दोहे में ही कहन का सारा भाव निहित होता है। उर्दू अरूज़ के किसी शेर की तरह। जो कुछ भाव है, वह किसी एक ही छन्द में समाहित हो।
घनाक्षरी (कवित्त) तो छन्दशास्त्र का घोषित मुक्तक है। इसके भेद में यह कहा गया है कि -
(एक) ये मात्रिकता निर्वहन वर्णों के हिसाब से करते हैं अतः ’गुरु-लघु’ का सटीक विधान इन पर काम नहीं करता। अतः वर्ण की संख्या नियत होती है और मात्रिकता को रचनाकार स्वयं साध लिया करते हैं। अतः ये ऐसी मुक्तता के कारण ही ’मुक्तक’ कहलाते हैं।
(दो) कहन के हिसाब से ये छन्द अपने आप में स्वतंत्र होते हैं और दो या दो से अधिक छन्दों को मिला कर कहन पूर्ण नहीं होता, अतः ये आपस में मुक्त होते हैं। यानी, एक ही विषय पर दो या दो से अधिक घनाक्षरियाँ हो सकती हैं, लेकिन उनका कथ्य एक-दूसरे पर निर्भर नहीं करता है। इसी कारण ये मुक्तक कहलाती हैं।
वैसे इतना तो तय है कि गेय रचनाओं के मुक्तक परिपाटियों से, यदि वे दोहे जैसे छन्द नहीं हैं तो, सदा चार पंक्तियों के होते हैं। जिनको उर्दू की बहर या हिन्दी के किसी छन्द के अनुसार निबद्ध किया जाता है और उनकी तीसरी पंक्ति अमूमन तुकान्तता से स्वतंत्र होती है, लेकिन वह मात्रिकता या वर्णिकता के लिए बाकी तीनों पंक्तियों के विन्यास का अनुसरण करती हैं। अलबत्ता, घनाक्षरी और सवैये छन्द चार पंक्तियों के होने के बावज़ूद चारों पंक्तियों की तुकान्तता समान होती है।
सादर
आदरनीय जवाहर भाई , बहुत सुन्दर भाव पूर्ण मुक्तक हुये हैं , दिल से बधाइयाँ ! बाक़ी सब तो आदरणीय सौरभ भाई पंक्ति दर पंक्ति सहाल दे ही दिये हैं ।
आदरणीय सौरभ सर, आपके परामर्श के अनुसार मैंने कुछ परिवर्तन किये हैं. कृपया इसे देख लें! सादर!
अँखियों में अँखियाँ डूब गईं,
अँखियों में बातें खूब हुईं.
जो कह न सके थे अब तक वो,
दिल की ही बातें खूब हुईं.
*
हमने न कभी कुछ चाहा था,
दुख हो, कब हमने चाहा था,
सुख में हम रंजिश होते थे,
दुख में तो ज्यादा चाहा था.
*
ऑंखें दर्पण सी होती हैं,
अन्दर बाहर सी होती हैं.
जब आँख मिली है तब से ही,
बातें अमृत सी होती हैं.
*
आँखों में सपने होते हैं,
अपने से सपने होते हैं,
आँखों में डूब जरा देखो,
कितने गम अपने होते हैं?
*
जब रिश्ते रिसते थे हरदम,
आँखों से कटते थे हरदम,
आँखों में कष्ट हुए थे जब,
आँसू बन रिसते थे हरदम.
*
लीला प्रभु की भी न्यारी है,
आँखों की छवि भी प्यारी है,
बढ़ता जाता है प्रेम तभी,
आँखें फेरन की बारी है.
बहुत मोहक हैं ये मुक्तक ,सस्वर पाठ करने में आनंद आया .हार्दिक बधाई प्रेषित करती हूँ आपको आदरणीय जवाहर लाल सिंह जी
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