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कुछ मुक्तक आँखों पर

अँखियों में अँखियाँ डूब गई,

अँखियों में बातें खूब हुई.

जो कह न सके थे अब तक वो,

दिल की ही बातें खूब हुई.

*

हमने न कभी कुछ चाहा था,

दुख हो, कब हमने चाहा था,

सुख में हम रंजिश होते थे,

दुख में भी साथ निबाहा था.

*

ऑंखें दर्पण सी होती है,

अन्दर क्या है कह देती है.

जब आँख मिली हम समझ गए,

बातें अमृत सी होती है.

*

आँखों में सपने होते हैं,

सपने अपने ही होते हैं,

आँखों में डूब जरा देखो,

कितने गम अपने होते हैं?

*

जब रिश्ते रिसते थे हरदम,

आँखों से कटते थे तुम हम,

आँखों में कष्ट हुई जबसे,

कुछ और सन्निकट पहुँचे हम.  

*

लीला प्रभु की भी न्यारी है,

जब चलने की तैयारी है,

बढ़ता जाता है प्रेम तभी,

आँखें फेरन  की बारी है.   

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 23, 2016 at 1:43am

आदरणीय समर साहब, प्रस्तुत मुक्तकों की प्रत्येक पंक्ति मात्रिक रूप से सधी हुई है और वाचिक तौर पर आठ गुरुओं पर निबद्धता है, ठीक उर्दू के अरुज़ के अनुसार !

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 23, 2016 at 1:42am

अँखियों में अँखियाँ डूब गई,
अँखियों में बातें खूब हुई.
जो कह न सके थे अब तक वो,
दिल की ही बातें खूब हुई.

जब अँखियों यानी आँख का बहुवचन (भले ही आंचलिक स्वरूप में) का प्रयोग हुआ है तो हुई की जगह हुईं होना श्रेयस्कर न होगा, आदरणीय जवाहरलाल जी ?
************
हमने न कभी कुछ चाहा था,
दुख हो, कब हमने चाहा था,
सुख में हम रंजिश होते थे,
दुख में भी साथ निबाहा था.

जब ’चाहा था’ से पंक्तियाँ दो दफ़े समाप्त हुईं तो चौथी पंक्ति क्यों ’निबाहा था’ हो गयी ? मात्रिक पंक्तियों का निर्वहन करते ’मुक्तकों’ के सामान्य नियम के अनुसार तीसरी पंक्ति तुकान्तता के दायरे से बाहर हुआ करती है. लेकिन चौथी पंक्ति को तो उसी तुकान्तता का निर्वहन करना होगा, जिसका निर्वहन पहली दो पंक्तियों में हुआ है.

या, यदि मुक्तक में दूसरी और चौथी पंक्ति की तुकान्तता बनाये रखना चाहते हैं, गेय कविता की तरह, तो पहली पंक्ति की तुकान्तता के मोह में न फँसें.
*********************
ऑंखें दर्पण सी होती है,
अन्दर क्या है कह देती है.
जब आँख मिली हम समझ गए,
बातें अमृत सी होती है.

यहाँ भी आँखें के बहुवचन में होने से ’देती है’ के स्थान पर ’देती हैं’ होगा न ?
’होती है’ और ’देती है’ का घालमेल हो गया है. इसे ऊपर दिये गये सुझाव के अनुसार दुरुस्त करें, आदरणीय जवाहरलाल जी.
***********************
आँखों में सपने होते हैं,
सपने अपने ही होते हैं,
आँखों में डूब जरा देखो,
कितने गम अपने होते हैं?

यहाँ भी ’होते हैं’ के ठीक पहले के शब्द पर विचार नहीं किया गया है. इस कारण पदान्त तो सही है लेकिन समान्त का निर्वहन नहीं हुआ है.
**********************
जब रिश्ते रिसते थे हरदम,
आँखों से कटते थे तुम हम,
आँखों में कष्ट हुई जबसे,
कुछ और सन्निकट पहुँचे हम.

इस मुक्तक में भी पदान्त के अनुसार समान्त सही नहीं है.
*************************
लीला प्रभु की भी न्यारी है,
जब चलने की तैयारी है,
बढ़ता जाता है प्रेम तभी,
आँखें फेरन की बारी है.

इस मुक्तक में तुकान्तता का कुछ हद तक उचित निर्वहन हुआ है, जवाहरभाई. वैसे कई सुधीजन न्यारी और तैयारी की तुक पर सहज न होंगे.लेकिन अभीकी स्थिति में आपके लिए ऐसी तुकान्तता अभीष्ट है.

शुभेच्छाएँ

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 22, 2016 at 6:28pm

आदरणीय समर कबीर साहब, जितनी मेरी जानकारी है, मुक्तक मात्रा से मुक्त नहीं होता, उसके भी अपने विधान हैं. सौरभ पाण्डेय साहब ने सही इशारा किया है. आपकी प्रतिक्रिया के लिए आभार!

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 22, 2016 at 6:26pm

आदरणीय सौरभ सर, पद्य, शिल्प में मैं कमजोर हूँ ... भाव पक्ष को ज्यादा उजागर करना चाहता हूँ. तुकांतता में एकाध जगह गलती हुई है. प्रवाह में भी एकरूपता नहीं है. आपका संकेत सही है. कुछ और मशविरा कर देते तो अज्ञानता समाप्त होती. सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 22, 2016 at 4:02pm

आदरणीय जवाहर भाई, व्यक्तिगत रूप से मैं एक अरसे बाद इस पटल पर आपकी कोई पद्य-रचना पढ़ रहा हूँ. अच्छा लगा. 

’मुक्तकों’ के भाव बड़े मनभावन हुए हैं. इसके लिए हार्दिक बधाई.

अलबत्ता,  शिल्पपक्ष को लेकर आप तनिक और सचेत रहा करें. तुकान्तता को लेकर आपका संशय अभी विद्यमान है. चूँकि आपने मात्रिक मुक्तक कहें हैं तो फिर विधान के अन्य विन्दुओं का निर्वहन आवश्यक हो जाता है न ? 

शुभेच्छाएँ

Comment by Samar kabeer on August 22, 2016 at 3:16pm
जनाब जवाहरलाल जी आदाब,हिंदी मुक्तक के बारे में सिर्फ़ इतना जनता हूँ कि ये मात्राओं की क़ैद से मुक्त होते हैं,क्या ये सही है ?

वैसे आपके मुक्तक अच्छे लगे बधाई स्वीकार करें ।

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