2122 2122 2122 2
मर रहे क्यूँ नाम के अखबार की खातिर
कब बने तमगे कहो फनकार की खातिर।1
लिख रहे जो बात कुछ भी काम आये तो
गर बहें आँसू किसी दरकार की खातिर।2
चाँद-सूरज जल रहे फिर मोम गलती है,
रूठते हैं कब भला उपहार की खातिर।3
बाढ़ आती है जहाँ कुछ- कुछ पनपता है
है कहाँ सब लाजिमी घर-बार की खातिर।4
खुद खुशी हित थी लिखी बहु जन मिताई ही
लिख रहे कुछ लोग निज उपकार की खातिर।5
शोखियों का शौक रखते बदगुमां कुछ हैं
कौन मरता है यहाँ आभार की खातिर।6
छेंकते कागज सियाही भी बिदकती है
लिख रहे आतुर मुए 'सरकार' की खातिर।7
मौलिक व अप्रकाशित@मनन
Comment
आदरणीय मनन भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है , आपको हार्दिक बधाइयाँ गज़ल के लिये । मिसरों के राबते पर और समय देना चाहिये था ऐसा लगता है , देखियेगा अगर कुछ बात बन सके तो , कुछ ख़टक रहा है लेकिन कोई क्या ख़टक रहा है पूछे अगर तो मै बताने मे असमर्थ हूँ ।
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