2122 2122 212
इश्क़ की राहों में हैं रुसवाईयाँ।
हैं खड़ी हर मोड़ पर तन्हाईयाँ।।
क्या करे तन्हा बशर फिर धूप में।
साथ उसके गर न हो परछाइयाँ।।
ऐ खवातीनों सुनों मेरा कहा।
क्यूँ जलाती हो दिखा अँगड़ाइयाँ।।
चाहता हूं डूबना आगोश में।
ऐ समंदर तू दिखा गहराइयाँ।।
दिल दिवाने का दुखा, किसको ख़बर ?
रात भर बजती रही शहनाइयाँ।।
तुम गये तो जिंदगी तारीक है।
हो गयी दुश्मन सी अब रानाइयाँ।।
दूर हो जाये जड़ों से ये पवन।
ऐ खुदा इतनी न दे ऊँचाइयाँ।।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बशर= आदमी
तारीक= अंधकारमय
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीया कान्ता जी
आदरनीय पवन भाई , बहुत खूब सूरत गज़ल कही आपने , दिली बधाइयाँ स्वीका करें ।
एक शेर से सहमत नही हो पा रहा हूँ , आप भी एक बार सोचियेगा , वैसे किसी की सहमति कथ्य पर ज़रूरी नही है , वस मुझे वास्तविकता से परे लग रही है बात --
क्या करे तन्हा बशर फिर धूप में।
साथ उसके गर न हो परछाइयाँ।। परछाइयाँ धूप मे तो रहतीं ही हैं , हाँ छाया मे ज़रूर साथ छोड़ देती है -- तो क्या ऐसा कहना उचित नही होगा --
क्या करे तन्हा बशर फिर छाँव् में।
साथ उसके गर न हो परछाइयाँ।। या - छोड़ दीं है साथ भी परछाइयाँ
-- बस यूँ ही एक सलाह है ।
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