212 212 212 212
वो कहें लाख चाहे ये सरकार है।
मैं कहूँ चापलूसों का दरबार है।।
मेरी लानत मिले रहनुमाओं को उन।
देश ही बेचना जिनका व्यापार है।।
कौम की खाद है वोट की फ़स्ल में।
और कहते उन्हें मुल्क़ से प्यार है।।
सब चुनावी गणित नोट से हल किये।
जीत तो वो गये देश की हार है।।
चट्टे बट्टे सभी एक ही थाल के।
बस सियासत ही है झूठी तकरार है।।
अब बयां क्या करे इस चमन को पवन।
शाख़ पर उल्लुओं की तो भरमार है।।
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय समर साहब।।। इस उत्साहवर्धन के लिये हृदय से आभार
आदरणीय गिरिराज जी,,, बहुत बहुत आभार आपका
आदरणीय पवन भाई , गज़ल खूबसूरत कही है आपने , आज की राजनीति ऐसी ही हो गई है । हार्दिक बधाइयाँ आपको ।
बहुत सुंदर सार्थक ग़ज़ल
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