सूनापन
एक ख़ला है, ख़ामोशी है,
जिधर देखो उदासी है,
समय सिफ़र हो गया,
आंसू निडर हो गए,
घेरे हैं लोग,पर कोई साथ नहीं,
सर पर किसी का हाथ नहीं,
शाम खाली गिलास सा,
टेबल पर औंधे मुंह पड़ा है,
मन में चिंता दीमक की तरह,
मन को खाये जा रही है,
दिल की गली ऐसी सूनी है,
मानो दंगे के बाद कर्फ़्यू लगा हो,
शरीर सूखे पेड़ की तरह खड़ा तो है पर,
पीसा के मीनार सा, झुक सा गया है,
कब तक और कहाँ तक
इस सूनेपन, इस अकेलेपन का
बोझ ढोते रहें 'अकेला'?
अब या तो तुम आ जाओ ज़िन्दगी में,
या फ़िर मौत आ मिले ज़िन्दग़ी से.......
मौलिक एवं अप्रकाशित
-आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला'
Comment
आदरणीया कांता रॉय जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद !!!
मेरा उत्साह बढ़ाने के लिए और नज़्म पढ़कर आनंद उठाने के लिए !!!
और इतने अच्छे कमेंट्स के लिए आभार !!!
आदरणीय समर कबीर जी दाद और मुबारकबाद के लिए कोटिशः धन्यवाद !!!
और आपके बहुमूल्य सुझाव एवं मार्गदर्शन के लिए आपका आभार !!!
मैंने ग़लती तुरंत सुधार ली !!!
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी.... तहेदिल से आपका शुक्रिया हौसला अफज़ाई के
लिए !!!!
आदरनीय आशीष भाई , व्यक्त निराशा हुई है , पर अभिव्यक्ति अच्छी है , आपको हार्दिक बधाइयाँ ।
आ. अग्रज गोपाल जी बहुत बहुत धन्यवाद नज़्म पढ़ने के लिए। जी आपकी बातों को ज़रूर अमल में लाऊँगा। सभी तरह के लिखता हूँ । ...धीरे-धीरे हाज़िर करूँगा। आपकी सलाह के लिए कोटिशः धन्यवाद !!!
और भी गम हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा --- कहाँ जान देनेपर तुले है साहिब कुछ आशाये सजाएं कुछ विश्वास जगाये . आमीन .
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