किश्तियों का छोड़ चप्पू
रौंदते पगडंडियों को
पत्थरों की नोक से
घायल करें उगता सवेरा
आग में लिपटे हुए हैं
पाखियों के आज डैने
करगसों के हाथ में हैं
लपलपाती लालटेनें
कोठरी में बंद बैठी
ख्वाहिशों की आज मन्नत
फाड़ कर बुक्का कहीं पे
रो रही है देख जन्नत
जुगनुओं की अस्थियों को
ढो रहा काला अँधेरा
घाटियों की धमनियों से
रिस रहा है लाल पानी
जिस्म में छाले पड़े हैं
कोढ़ में लिपटी जवानी
मौत के साए उठा के
पूँछ पीछे भागते हैं
सी रहे हैं जो कफन को
सिर्फ दर्जी जागते हैं
उललुओं का हर शज़र की
शाख़ पर बेख़ौफ़ डेरा
धँस गई धर्मान्धता में
एतिहासिक भीत निर्मित
वादियों में हो रहे हैं
खंडहरों के गीत चर्चित
दांत अपने जीभ अपनी
वर्जनाएँ हँस रही हैं
सरहदों की मुट्ठियाँ
बदनामियों को कस रही हैं
देख धूमिल रंग सारे ठोकता माथा चितेरा
पत्थरों की नोक से घायल करें उगता सवेरा
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरनीया राजेश जी , मै इतीनी बड़ी बात कहने के योग्य खुद को नही मानता , लेकिन इतना ज़रूर कहूँगा कि , अगर क्षेत्रिय भाषा कके शब्दों का उपयोग करें तो उसे लिख दिया करें और अर्थ भी दे दें ताकि पाठक को समझने मे आसानी हो ।
इन शब्दों की स्वीकार्यता के विषय मे गुणि जन ही कह सकते हैं ।
आद० गिरिराज जी, आपने जिन दो शब्दों की बात की है आपकी बात सही है दरअसल गिद्ध के लिए करगस शब्द होता है जिसे हमारे यहाँ देशज रूप में खरगस बोलते हैं उसी तरह लालटेन लेम्प को कहते हैं जिसे हमारे यहाँ लेंटेन भी बोलते हैं मैंने जैसे हमारे यहाँ बोलते हैं हूबहू वैसे ही शब्द रक्खे हैं |उल्लुओं की बात भी सही है इस पंक्ति में ही संशोधन कर रही हूँ अपनी मूल पोस्ट में कर चुकी हूँ जैसे ---उल्लुओं का हर शज़र की शाख़ पर बेखौफ़ डेरा | आपका बहुत बहुत शुक्रिया यदि खरगस और लेंटेने ठीक नहीं लग रहे तो उनके मूल रूप में संशोधित कर सकती हूँ आप परामर्श दें |
आदरनीया , ये दो शब्द मेरी जानकारी में नहीं है , हो सकता है ये सहीं ही हों --खरगसों और लेंटेनें ( मै इनका अर्थ ही नही जानता, हिन्दी डिक्सनरी मे भी नही मिले ), तीसरा शब्द उल्लुओं होना चाहिये ऐसा मेरा अन्दाज़ा है ।
आद० गिरिराज जी,आपको नवगीत पसंद आया आपका दिल से बहुत बहुत आभार | आदरणीय जानबूझ कर तो ऐसा नही किया अनजाने में हो गया हो तो उसको आप अवश्य बताएं संभव हो सका तो उसे दुरुस्त करने का पूरा प्रयास करुँगी सादर |
आदरनीया राजेश जी , सुनदर ओज पूर्न नवगीत के लिये हार्दिक बधाइयाँ । आज के काश्मीर को पूर्णतया बयाँ करने मे सक्षम है नवगीत ।
आदरनीय दो तीन स्थान पर शब्दों की मूल वर्तनी से समझौता किया लगता है , या फिर मेरी ही अज्ञानता हो ।
आद० रवि भैया,प्रस्तुति पर आपका आगमन और सराहना ने मुझे अपने लेखन कर्म के प्रति आश्वस्त किया आपको रचना पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ आपने सही कहा का की आ मात्रा को गिराने की मजबूरी थी आपका दिल से बहुत- बहुत आभार |
आद० शेख़ उस्मानी जी,नवगीत पर आपकी समीक्षा से अभिभूत हूँ मेरा लेखन कर्म सार्थक हो गया |दिल से बहुत बहुत आभार आपका |
आपने ये जानकारी साझा की भाई जी, आपका बहुत- बहुत शुक्रिया |
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