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ग़ज़ल ( अंजाम तक न पहुंचे )

ग़ज़ल ( अंजाम तक न पहुंचे )

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मफऊल-फ़ाइलातुन -मफऊल-फ़ाइलातुन

आग़ाज़े इश्क़ कर के अंजाम तक न पहुंचे ।

कूचे में सिर्फ पहुंचे हम बाम तक न पहुंचे ।

फ़ेहरिस्त आशिक़ों की देखी उन्होंने लेकिन

हैरत है वह हमारे ही नाम तक न पहुंचे ।

उसको ही यह ज़माना भूला हुआ कहेगा

जो सुब्ह निकले लेकिन घर शाम तक न पहुंचे ।

बद किस्मती हमारी देखो ज़माने वालो

बाज़ी भी जीत कर हम इनआम तक न पहुंचे।

साक़ी से जिसने छीना साग़र हुआ उसी का

जो मांगते रहे मय वह जाम तक न पहुंचे ।

दहशत पसंद है वह मुस्लिम कहो न उसको

नामे जिहाद ले जो इस्लाम तक न पहुंचे ।

तस्दीक़ उनको  मंज़िल उल्फत की क्या मिलेगी

राहे वफ़ा में जिनके अक़्दाम तक न पहुंचे ।

( मौलिक व अप्रकाशित )

  

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 2, 2016 at 9:59am

आदरणीय तस्दीक  भाई , बेहतरीन गज़ल हुई है , दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on September 2, 2016 at 8:58am
वाह, हैरत है वह हमारे ही नाम तक न पहुँचे

खान साहब, उम्दा ग़ज़ल कही है, वाह !!!!!

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