ग़ज़ल ( क़लम तक न पहुंचे )
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१२२ --१२२ --१२२ --१२२
वो पहुंचे मगर चश्मे नम तक न पहुंचे ।
हंसी में छुपे मेरे गम तक न पहुंचे ।
इनायत है उनकी मगर खौफ भी है
कहीं सिलसिला यह सितम तक न पहुंचे ।
कई बार उनसे हुई बात लेकिन
मेरे जज़्बए दिल सनम तक न पहुंचे ।
यही रहबरों चाहती है रियाया
सियासत कभी भी धरम तक न पहुंचे ।
तसव्वुर नहीं बंदिशें हैं मिलन पर
यकीं कैसे कर लें वो हम तक न पहुंचे ।
ख़िलाफ़े सितम कैसे बोले वो शायर
जो हिम्मत करे पर क़लम तक न पहुंचे ।
कभी कोई तकलीफ़ तस्दीक़ उनको
क़सम खाइये मरते दम तक न पहुंचे ।
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
मोहतरम जनाब गिरिराज साहिब ,ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणेय तस्दीक भाई , बेहतरीन गज़ल से नवाज़ा है आपने ,मंच को ! हरेक शे र के लिये दाद हाज़िर है , कुबूल कीजिये ।
मोहतरम जनाब समर कबीर साहिब आदाब ,ग़ज़ल में गहराई से शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया --टाइप करते वक़्त यह गलती रह गयी , मेरी कॉपी में तो ग़ज़ल उर्दू में लिखी हुई है जो रे -ऐन -अलिफ़ -ये -अलिफ़ है ----शुक्रिया
जनाब श्याम नारायण साहिब ,ग़ज़ल में गहराई से शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया --
जनाब सतविंदर कुमार साहिब ,ग़ज़ल में गहराई से शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया --
जनाब आशुतोष साहिब ,ग़ज़ल में गहराई से शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया --
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल! आपको बहुत-बहुत बधाई! सादर |
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