हार ...
ये इश्क-ओ-मुहब्बत के
बड़े अज़ब नज़ारे हैं
उनके दिए दर्दों से
हमने
तन्हा लम्हे सँवारे हैं
लोग
डरते होंगे ज़ख्मों से
मगर
सच कहते हैं
ये ज़ख्म
हमें बहुत प्यारे हैं
रिस्ते ज़ख्मों की
हर टीस पे
हमने सनम पुकारे हैं
अंगार बन के उठती हैं
यादें उनकी
तन्हाई में
कैसे बताएं ज़माने को
हम क्या जीते
क्या हारे हैं
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' जी प्रस्तुति को अपने स्नेह से मान देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय तस्दीक साहिब प्रस्तुति को अपने स्नेह से मान देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति पर आपकी हौसला अफ़ज़ाई का दिल से शुक्रिया। इंगित पंक्ति से मेरा अभिप्राय जब जब ज़ख्मों में दर्द भरी टीस हुई है हमने अपना सनम,मुहब्बत,प्यार को पुकारा है। एक भाव है सर बस। इस स्नेह का हार्दिक आभार।
मोहतरम जनाब सुशील सरना साहिब , ग़ज़ल के रंग में डूबी इस सुन्दर कविता के लिए दिल से मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
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