लम्हा ...
ख़ामोश था
मैं जब तलक
हर तरफ़
इक शोर था
खोली जुबाँ
जो मैंने ज़रा
तो
हर शोर
ख़ामोश हो गया
इक लम्हा
ज़लज़ले में सो गया
इक लम्हा
ज़लज़ला हो गया
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय शिज्जु "शकूर" साहिब सृजन की हौसला अफ़ज़ाई करती आपकी आत्मीय प्रशंसा से प्रस्तुति उपकृत हुई।
अच्छी कविता है आ. सुशील सरना सर बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीय समर कबीर साहिब सृजन की हौसला अफ़ज़ाई करती आपकी आत्मीय प्रशंसा से प्रस्तुति उपकृत हुई।
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