माँ ...
दर्द का
मंथन हुआ तो
एक सागर
बूँद बन
लहद पर
ऐसा गिरा
कि
गर्म लावे से पिघल
माँ
लहद से बाहर
आ गयी
ले के दर्द बेटे का
फिर
लहद में
समा गयी
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय समर कबीर साहिब दिल को तस्सली देने के लिए हार्दिक आभार। कृपया अपना स्नेह बनाये रखें।
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति के भावों की गहनता को आपकी स्वीकृति देती प्रशंसा ने सृजन को जो मान दिया है उसके लिए बन्दा आपका शुक्रगुजार है। आप की स्नेही थपकियों से मैं थोड़ा संभल जाता हूँ वरना लगता है शायद मेरा सृजन इस मंच के काबिल नहीं है। दो दिन तक एक भी पाठक अगर सृजन तक न आये तो दिल आहत होता है। नए सृजन को दिल नहीं करता। आप आते हैं तो लगता है की सृजन कोई तो रखवाला है जो सृजन के दर्द को जानता है। बहरहाल आपकी इस ख़ासियत का मैं दीवाना हूँ। आपका तहे दिल से शुक्रिया सर।
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