कल का जंगल ...
खामोश चेहरा
जाने
कितने तूफ़ानों की
हलचल
अपने ज़हन में समेटे है
दिल के निहां खाने में
आज भी
एक अजब सा
कोलाहल है
एक अरसा हो गया
इस सभ्य मानव को
जंगल छोड़े
फिर भी
उसके मन की
गहन कंदराओं में
एक जंगल
आज भी जीवित है
जीवन जीता है
मगर
कल ,आज और कल के
टुकड़ों में
एक बिखरी
इंसानी फितरत के साथ
मूक जंगल का
वहशीपन
जाने क्यूँ
आज भी
आदियुग के दावानल में
रिश्तों को झुलसाता है
अपने आज पे
बीते कल को दोहराता है
आदमीयत के
कैनवास को
नफरत की कालिख़ से
सजाता है
आज के हर पायदान पे
कल का जंगल
छोड़ जाता है
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीयलक्ष्मण रामानुज लाडीवाला जी प्रस्तुति के भावों को अपने स्नेह देना का हार्दिक आभार। आपको भी दीपावली की शुभकामनाएं। त्यौहारी व्यस्तता के चलते आभार व्यक्त करने में विलम्ब हुआ , क्षमा चाहता हूँ।
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति अपने स्नेहिल शब्दों से अलंकृत करने का दिल से आभार । आपको भी दीपावली की शुभकामनाएं। त्यौहारी व्यस्तता के चलते आभार व्यक्त करने में विलम्ब हुआ , क्षमा चाहता हूँ।
आदरणीया अर्पणा शर्मा जी प्रस्तुति अपने स्नेहिल शब्दों से मान देने का दिल से आभार । आपको भी दीपावली की शुभकामनाएं। त्यौहारी व्यस्तता के चलते आभार व्यक्त करने में विलम्ब हुआ , क्षमा चाहता हूँ।
मूक जंगल का वहशीपन
जाने क्यूँ आज भी
आदियुग के दावानल में
रिश्तों को झुलसाता है
अपने आज पे
बीते कल को दोहराता है
आदमीयत के कैनवास को
नफरत की कालिख़ से
सजाता है
आज के हर पायदान पे
कल का जंगल
छोड़ जाता है | ---- आदमी के अन्दर के इस वहशीपन के कारण ही कई बार रिश्ते शर्म सार होते रहे है | सुंदर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई श्री सुशील सरना जी
आदरणीय Shyam Narain Verma जी प्रस्तुति के भावों को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।
इस सुंदर प्रस्तुति के लिए तहे दिल बधाई सादर |
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