घरोंदा - लघुकथा –
"सुनोजी, तुम्हारे रिटायरमेंट में डेढ़ साल बचा है।रिटायर होने के बाद यह सरकारी मकान छोड़ना होगा।कुछ सोचा है, कहाँ जांयेंगे"।
"सुधा, अभी अपने पास डेढ़ साल है। कुछ ना कुछ इंतज़ाम हो जायेगा"।
"इतने साल की नौकरी में तो कोई तीर मारा नहीं, अब डेढ़ साल में क्या चमत्कार कर लोगे"।
"सुधा, तुम यह कैसी बातें करती हो।बत्तीस साल, बेदाग नौकरी की है।रिटायर होने पर पी एफ़ और ग्रेचुटी का इतना तो पैसा मिल ही जायेगा कि दो कमरों का फ़्लैट खरीद सकूं"।
" वाह शुक्ला जी, क्या कहने, रसद विभाग का हैड, दो कमरों के फ़्लैट में रहेगा और उसके मातहत क्लर्क कोठी और बंगले में रहेंगे"।
"सुधा, तुम्हारा यही नज़रिया मेरा मन दुखाता है। तुम जानती हो कि मैं अपना ईमान बेचकर पैसा नहीं कमा सकता |बंगले और कोठी से अधिक महत्वपूर्ण होता है घर में सुख और शांति, भले ही घर छोटा हो, मगर चैन की नींद आनी चाहिये"।
"तुम्हारे विभाग के हर छोटे बड़े कर्मचारी का अपना एक ना एक घर है, कुछ के तो एक से भी अधिक, केवल तुम्हीं हो जिसका एक प्लॉट भी नहीं| सभी दोनों हाथों से दिल खोल कर कमा रहे हैं"।
"और मैडम यह भी सुन लो, जो कमा रहे हैं उन सभी के खिलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोप में इन्क्वारियां भी चल रही हैं"।
“शुक्ला जी, इन सरकारी इन्क्वारियों में क्या होता है, हमें सब पता है”|
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय सुशील सरना जी।आपने लघुकथा को समय दिया, सराहना की, मैं कृतार्थ हो गया।
“शुक्ला जी, इन सरकारी इन्क्वारियों में क्या होता है, हमें सब पता है”|...... बहुत सुंदर आदरणीय तेजवीर सिंह जी ये कटाक्ष बहुत कुछ कह गया। ईमानदार भी दम तोड़ देगा ईमानदारी भी दम तोड़ देगी बस रह जाएगा एक अफ़सोस किसी बड़े बंगले के नीचे खड़ा अपने पाँव में ईमानदारी की टूटी चप्पल के साथ। हार्दिक बधाई स्वीकार करें सर।
हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी जी।
हार्दिक आभार आदरणीय समर क़बीर साहब जी।लघुकथा को सराहने और त्वरित प्रतिक्रिया के लिये भी पुनः आभार।
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