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उसे कह दो जहाँ हूँ मैं वहाँ समझे
ज़मीं हूँ मैं, न मुझको आसमाँ समझे
हो किससे गुफ़्तगू इस दश्ते वीराँ में
कोई तो हो, जो मेरी भी ज़बाँ समझे
हक़ीक़त आशना है क्यूँ भला वो भी
है राहे संग उसको कहकशाँ समझे
छिनी रोटी तो छायी बद हवासी है
मुझे मयख़्वार क्यूँ सारा जहाँ समझे
मुहज़्ज़ब जो दबा लेता है नफरत, को
सही समझे अगर, आतिशफ़िशाँ समझे
तू वो ही है , जो सच में है तेरे अंदर
तू वो भी है, जो तुझको ये जहाँ समझे
परिन्दा एक देखो ज़िद पे बैठा है
कफस के दायरे को आसमाँ समझे
हरारत धूप सी देने लगा है वो
जिये अब तक, जिसे हम सायबाँ समझे
पराये भी समझने का किये दावा
मगर है सच, कि अपने भी कहाँ समझे
समय का आखिरी सफ़हा ये कह देगा
वो फ़ानी था जिसे तुम जाविदाँ समझे
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
तू वो ही है , जो सच में है तेरे अंदर
तू वो भी है, जो तुझको ये जहाँ समझे-----वाह्ह्ह्हह वाह
परिन्दा एक देखो ज़िद पे बैठा है
कफस के दायरे को आसमाँ समझे----क्या कहने लाजबाब
पराये भी समझने का किये दावा
मगर है सच, कि अपने भी कहाँ समझे ----बहुत उम्दा
बहुत सुंदर ग़ज़ल हुई है आद० गिरिराज जी दिल से बधाई लीजिये
आदरणीय कालीपद भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , गज़ल की सराहना के लिये आपका आभार ।
आदरनीय तस्दीक भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरनीय मिथिलेश भाई , गज़ल की मुखर सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरणीय समर भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीय सुनील सरना भाई , सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ भाई , हौसला अफज़ाई का शुक्रिया ।
बहुत उम्दा गाज़ल आदरणीय गिरिराज जी
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