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जो खोजते हैं रोज़ कोई मुद्दआ मिले
तफ़्सील में गये तो वो ख़ुद से ख़फ़ा मिले
नफरत मिली है देखिये नफरत से इस तरह
मजबूरियों में तेल ज्यूँ पानी से जा मिले
हारे हुए मिलेंगे जहाँ खार कुछ तुम्हें
मुमकिन है उस जगह से मिरा भी पता मिले"
हम दिल से चाहते हैं उन्हें दाद हो अता
जो नेवले की जात हो, साँपों से जा मिले
बादल बरस के साथ ही ऐलान कर गया
क़िस्मत ही फैसला करे, अब तुझको क्या मिले
इंसान ही ज़मीन पे मिल जाये तो बहुत
चाहत नहीं है कोई मुझे देवता मिले
हर वक़्त मांगता है वफा , क्या तुझे हुआ ?
ये कौन चाहता है कि उसको गदा मिले
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आज यह पुन: पढ़ी, और यह खूबसूरत गज़ल और भी अच्छी लगी।
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।
आदरणीय सुनील शाहाबादी भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
वाह वाह मजा आ गया आ० अनुज .
आदरणीय मिथिलेश भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
आदरणीय गिरिराज सर, बहुत शानदार ग़ज़ल कही है आपने. शेर-दर-शेर दाद कुबूल फरमाएं. सादर
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।
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