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कर के उल्टी, कभी नहीं कहते
ख़ुद की हो गंदगी ...नहीं कहते
कितने बे ख़ौफ हो गये हैं सब
चाँद को चाँद भी नहीं कहते
सादगी देख कर भी पागल में
हम उसे सादगी नहीं कहते
फाइदा तो लिये उजालों का
पर उसे रोशनी नहीं कहते
जब से इमदाद-ए-पाक पाये हैं
हम उन्हें आदमी नहीं कहते
क़त्ल करतें हैं ले के नाम–ए-ख़ुदा
हम उसे बंदगी नहीं कहते
तुम इसे मौत कह न पाये तो
हम इसे ज़िन्दगी नहीं कहते
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
क़त्ल करतें हैं ले के नाम–ए-ख़ुदा
हम उसे बंदगी नहीं कहते
तुम इसे मौत कह न पाये तो
हम इसे ज़िन्दगी नहीं कहते
आदरणीय गिरिराज जी भाई साहिब हम तो फ़िदा हो गए सर ... हार्दिक हार्दिक बधाई सर। ... चार पंक्तियाँ पेश हैं इसी क्रम में :
कोई मौत न कह पाया
कोई हयात न कह पाया
मिटा गया ज़िस्म जल के
साथ अपने अपना साया
आपकी इस ग़ज़ल के कुछ शेर तो एकदम से असर करते हैं, आदरणीय गिरिराज भाई. पहले तो मुबारकबाद कुबूल कीजिए, तो फिर उन अश’आर पर आता हूँ.
सादगी देख कर भी पागल में
हम उसे सादगी नहीं कहते ........... अय-हय, हय-हय ! जिस खूबसूरती से आपने इस शेर को निभाया है यह देर तक असर करता है. कहना न होगा, मतिमूढ़ता और मतिसुन्नता भी पागल के गहरे लक्षण हैं. इनकी निर्लिप्तता और सादगी को कत्त्तई उदाहरण नहीएं बनाया जा सकता. और, सही है, पागल केवल शिजोफ्रेनिक कैटेगरी का ही नहीं होता.
क़त्ल करतें हैं ले के नाम–ए-ख़ुदा
हम उसे बंदगी नहीं कहते............... बहुत खूब ! जिस व्यवहार को आज आदमी जीने लगा है वह चकित क्या करेगा, दुखी अधिक करता है. इस शेर केलिए बार-बार बधाइयाँ.
आपकी इस ग़ज़ल के लिए पुनः दाद दे रहा हूँ.
सादर
सादगी देखकर भी दुश्मन की
हम उसे सादगी नहीं कहते -------------------अनुज जी शायद यह अधिक बेहतर होगा पर आप और अच्छा कह सकते हैं , सादर .
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