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ग़ज़ल -चाँद को चाँद भी नहीं कहते -- ( गिरिराज भंडारी )

2122    1212   22 /112

कर के उल्टी, कभी नहीं कहते

ख़ुद की हो गंदगी ...नहीं कहते

 

कितने बे ख़ौफ हो गये हैं सब
चाँद को चाँद भी नहीं कहते 

 

सादगी देख कर भी पागल में

हम उसे सादगी नहीं कहते

 

फाइदा तो लिये उजालों का 

पर उसे रोशनी नहीं कहते 

 

जब से इमदाद-ए-पाक पाये हैं

हम उन्हें आदमी नहीं कहते

 

क़त्ल करतें हैं ले के नाम–ए-ख़ुदा

हम उसे बंदगी नहीं कहते

 

तुम इसे मौत कह न पाये तो

हम इसे ज़िन्दगी नहीं कहते

***************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

Views: 557

Comment

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Comment by Sushil Sarna on December 8, 2016 at 7:11pm

क़त्ल करतें हैं ले के नाम–ए-ख़ुदा
हम उसे बंदगी नहीं कहते

तुम इसे मौत कह न पाये तो
हम इसे ज़िन्दगी नहीं कहते

आदरणीय गिरिराज जी भाई साहिब हम तो फ़िदा हो गए सर ... हार्दिक हार्दिक बधाई सर। ... चार पंक्तियाँ पेश हैं इसी क्रम में :

कोई मौत न कह पाया
कोई हयात न कह पाया
मिटा गया ज़िस्म जल के
साथ अपने अपना साया


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 8, 2016 at 3:54pm

आपकी इस ग़ज़ल के कुछ शेर तो एकदम से असर करते हैं, आदरणीय गिरिराज भाई. पहले तो मुबारकबाद कुबूल कीजिए, तो फिर उन अश’आर पर आता हूँ. 

सादगी देख कर भी पागल में

हम उसे सादगी नहीं कहते ........... अय-हय, हय-हय ! जिस खूबसूरती से आपने इस शेर को निभाया है यह देर तक असर करता है. कहना न होगा, मतिमूढ़ता और मतिसुन्नता भी पागल के गहरे लक्षण हैं. इनकी निर्लिप्तता और सादगी को कत्त्तई उदाहरण नहीएं बनाया जा सकता. और, सही है, पागल केवल शिजोफ्रेनिक कैटेगरी का ही नहीं होता. 

क़त्ल करतें हैं ले के नाम–ए-ख़ुदा

हम उसे बंदगी नहीं कहते............... बहुत खूब ! जिस व्यवहार को आज आदमी जीने लगा है वह चकित क्या करेगा, दुखी अधिक करता है. इस शेर केलिए बार-बार बधाइयाँ. 

आपकी इस ग़ज़ल के लिए पुनः दाद दे रहा हूँ. 

सादर

Comment by नाथ सोनांचली on December 7, 2016 at 1:45pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी सादर अभिवादन, शैर दर शेर दाद के साथ बधाई कबूल फरमाएं।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 6, 2016 at 10:54pm
आदरणीय गिरिराज सर आपने उम्दा गजल कही है सिर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं सादर
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 6, 2016 at 5:53pm

 सादगी देखकर भी दुश्मन की 

हम उसे सादगी नहीं कहते -------------------अनुज जी  शायद यह अधिक बेहतर होगा  पर आप और अच्छा कह सकते हैं , सादर  .

Comment by Samar kabeer on December 6, 2016 at 2:53pm
मुआफ़ी चाहूंगा,तीसरे शैर में आपने ये भाव रखा है कि हम पागल में सादगी देख कर भी उसे सादगी नहीं कहते,इसमें शुतरगुर्बा का दोष नहीं है,लेकिन पागल में सादगी नहीं,वहशत और दीवानगी होती है,इस बिंदू पर इस शैर को देखिये ।
Comment by Samar kabeer on December 6, 2016 at 2:49pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबफ क़ुबूल फरमाएं ।
तीसरे शैर में शुतरगुर्बा का दोष है,ऊला मिसरे में 'मैं' सानी में 'हम'देखिये, सानी मिसरा यूँ कर सकते हैं:-
वो उसे सादगी नहीं कहते ।
एक बात और ग़ज़ल के चार शैर एक ही तरकीब के हो गये हैं "हम उसे"ये कोई दोष तो नहीं है लेकिन इससे बचना अच्छा होता है ।

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