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सात नदियाँ मिलती हैं

गुजरात के कच्छ में

समुद्र से

 

उस स्थल पर

जिसे ‘रण’ कहते है

और जहां सबसे खारा होता है 

समुद्र का पानी

नमक बनाने के लिए

जिसे हम लवण भी कहते है

और इसी से बनता है

एक मोहक शब्द

लावण्य

जो प्रकट करता है

मनुष्य के जीवन और उसके रंगों में

नमक की महत्ता, उपादेयता और स्वाद

 

पर

कभी किसी ने सोचा है गोर्की की भाँति

कि किस संत्रास में जीते है

नमक के अगड़िया मजदूर

जो चालीस डिग्री से भी उच्च तापमान में

पसीने से लथपथ

करते हैं दिन के नौ-नौ घंटे अनवरत

नीमसारों में काम

जहाँ उनके लिए मना है

पेशाब करना

जिसके चलते वे नहीं जाते

पानी पीकर

नमक के खेत में

अपने काम पर

और असमय दावत देते है

गुर्दे के रोगों को, अंधेपन को

टी बी और गैंग्रीन को

 

भूख और दैन्य

की अविकल विवशता में

जूझता है

कच्छ का यौवन

नारकीय यंत्रणा से

और उन्हें सहयोग मिलता है

अपनी महिलायें से  

हाथों में फावड़े लिए

घुटनों तक

नमक की घनी, लोनी

कास्टिक युक्त, घावक

किन्तु चमचमाती ‘रापा’ में

धंसी हुयी जो

किसी यंत्र की तरह

दिखती हैं

हरकत करती हुयी

भावहीन, सपाट, निशब्द

अपने आप में खोयी हुयी

तपस्या में रत

उदास मटमैली आकृति

जिनमे

आपस में भी बतियाने का

न साहस है

न समय और न शक्ति 

   

झुके हुए है

अनगिनत पुरुष मजदूर भी

अपने चीखते पहियों की रगड़ खाकर 

अडियल घोड़े की भांति

आगे बढ़ने से कतराते  

हथठेलों पर

कसमसाते हुये या फिर निश्चेष्ट

किसी शोक संदेश की तरह

किसी अज्ञात सत्ता के समक्ष

 

सहसा चौंक उठते हैं वे

हाथ में बेलचा लिए

फोरमैन की

खौफनाक रोबीली गालियों

की अनवरत बौछारों से

और सहम जाते है उनके दिल

कि कही कट न जाए पगार

और फिर रात को नींद न आये

दारू के बिना

जो सुलाती भी है और बहलाती भी है   

नमक से भरे हुए अनगिन घावों की

उस दारुण, दर्दनाक पीड़ा से 

   

 

आवाज है

कि पीछा नहीं छोडती

फोरमैन चीखता है -

‘हरामजादे , इसे खाली कर बाईं ओर

सुअर के बच्चे बाईं ओर    

वरना उधेड़ कर रख दूंगा

तेरी सारी चमड़ी

अपने दीदे फुड़वाने  हैं के 

हराम के जाये ‘

 

आँख में अंगार लिये

मन ही मन सुलगते हैं युवा

और देखते हैं उस प्रौढ़ मजदूर की ओर

नमक का सृजन करते-करते

जिसकी टाँगे पतली पड़ गयी है

और सब जानते हैं 

कि इस पोलियोग्रस्त जैसी टांगो से

अब आगे वह नीमसार में

अधिक नहीं चल पायेगा

तमाम गैंग्रीन, टी बी और गुर्दे की बीमारी

शीघ्र ही कर देंगी

उसका काम तमाम

और तब उसे भी नसीब होगी

उस चिता की आग

जो सत्य है सभी के जीवन का

पर उस आग में भी नहीं जलती     

वे पतली सूखी अकड़ी टाँगे

अलग करते हैं परिजन

चिता से  

उन अधजली टांगो को

और करते हैं नमक में दफ़न

क्योंकि 

नमक का मजदूर माटी में नही

मिलता है नमक में

गलता है नमक में

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 28, 2016 at 7:29pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , बहुत मार्मिक कविता हुई है , सोचने के लिये मजबूर करती । दिल से बधाइयाँ स्वीकार करें ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 28, 2016 at 5:30pm

आ० निकोर जी , बहुत बहुत आभार 

Comment by vijay nikore on November 28, 2016 at 8:03am

// उस चिता की आग

जो सत्य है सभी के जीवन का

पर उस आग में भी नहीं जलती     

वे पतली सूखी अकड़ी टाँगे

अलग करते हैं परिजन

चिता से  

उन अधजली टांगो को

और करते हैं नमक में दफ़न

क्योंकि 

नमक का मजदूर माटी में नही

मिलता है नमक में

गलता है नमक में //  

बेहद खूबसूरत रचना। अनोखे विचार और सोचने को बाधित करते हैं, जैसे कि गोर्की, काफ़का, दोस्तोव्सकी और एन रैंड की रचनाएँ... पर सच कहूँ आपकी रचना बेमिसाल है।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 27, 2016 at 2:37pm

मिर्जा हफीज बेग साहिब .रचना पर गहराई से विचरने हेतु आभार . आपने गोर्की की कहानी पढी है अतः आप इस कविता के असली पारखी है . सादर आभार

Comment by Mirza Hafiz Baig on November 26, 2016 at 11:43pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव साहब, क्या कहूं ? शब्द नही मिल रहे हैं । आपने मानो गोर्की को सचमुच जीवित ही कर दिया । गोर्की की बहुत पहले पढ़ी गई कहानी 'नमक का दलदल' नज़रों के सामने घूम गई । लेकिन आपने उससे भी खतरनाक हालात से रू-ब-रू कराया । इस विषय को उठाने के लिये भी बधाई स्वीकार करें । इस प्रकार के विषय उठाने वाले आज कल बहुत लोग नही रहे । देश की रीढ़ मज़दूरों और किसानो के दम पर ही मज़बूत है । लेकिन वे क्या पाते है ? जिसमे भी मज़दूर बेचारा न सिर्फ़ हमेशा जान के और शारीरिक हानि के खतरों से घिरा रहता है बल्कि वह जानता है कि मौत ही उसके जीवन से बेहतर होती है । क्योंकि वह धीरे-धीरे निश्चित रूप से अपने शरीर का एक एक हिस्सा गंवा रहा है । और देश के लिये उसकी कुर्बानियों का कोई सम्मान भी करने वाला नही । न वह शहीद कहलाता है न सेवा के पश्चात का जीवन सुरक्षित कर पाता है ।

 कविता हृदयस्पर्शी रही । बहुत बहुत बधाई ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 26, 2016 at 8:25am

आ० नवीन्मानी जी आपका सादर आभार

Comment by Naveen Mani Tripathi on November 25, 2016 at 10:31pm
वाह सर बहुत सुन्दर लिखा आपने । बधाई

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