ओ मेरे आकाश !
पिता थे तुम
असीम अपरिमाप
सितारों की पहुँच से भी दूर
और मैं पर्वत की भाँति बौना
अपने उठान का अभिमान लिए
तब नहीं जानता था
यह फर्क
जब तुम मेरे पास थे
अनंत विस्तार लिए
भले ही
आज बन जाऊं मैं ऊंचा
चोमोलुंगमा
यानि कि सागरमाथा
दुनियां का सर्वोच्च हिमशिखर
एवरेस्ट ---
ओ मेरे आकाश !
सदा ही रहोगे तुम
अनंत ऊँचाइयों पर
ऊंचे और उन्नत
कई-कई एवरेस्ट
शिखरों से ऊपर
और तना रहेगा तुम्हारा
श्यामल आच्छादन
ठीक सबके सिर पर
किसी अज्ञात
आशीर्वाद के प्रति उठे
एक प्रशस्त हाथ की तरह
ओ मेरे आकाश !
क्यों हो मेरी पहुँच से
तुम इतनी दूर ?
क्यों नहीं पहुँचते वहां तक
अब मेरे हाथ ?
जो कभी थामते थे
तुम्हारी उंगली
क्यों झिटक दिया तुमने मुझे
मेरी उन बौनी बांहों को ?
क्यों हो गए तुम
सिर्फ एक झटके से
मायावी अंत से
सत्वर अनंत ?
ओ मेरे आकाश !
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आ० वामनकर जी , आपका स्नेह पाकर आश्वस्त हूँ सादर .
आ० विजय निकोर जी , आपकी भावपूर्ण टिप्पणी से अभिभूत हूँ . सादर .
-आ० मिर्जा हफीज बेग साहिब , बहुत बहुत शुक्रिया .
आ० सुनील प्रसाद जी , अभिभूत हुआ .
आदरने समर कबीर साहिब , आपका शत शत आभार
आदरणीय गोपाल सर, दिल को छूती प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई सादर
पिता का स्थान मेरे जीवन में कितना महान था, यह आपकी हृदयस्पर्शी रचना मेरी पलकों को भिगो कर याद दिला गई। ३६ वर्ष हुए जब मैंने उन पर घी और सन्दल की आहुति दी थी, और मुझको लगा कि मैं केवल वहाँ तक ही उनको अपने पास रख सकता था । आपने यह क्या कविता लिखी सारा दृश्य वापस लौट आया। आपको किन शब्दों से बधाई दूँ, आदरणीय भाई गोपाल नारायन जी ! बहुत ही सुन्दर रचना है।
आदरणीय डॉ, गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी, धन्यवाद । दिल को छू लिया । पिता की कमी पता नही किस उम्र तक खलती रहती है ।
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