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इंसानी फितरत के जलवे दिन ये कैसे आये हैं
सन्नाटा गलियों में छाया संगीनों के साये हैं
चप्पे-चप्पे पर दिखता है आतुर सैनिक का पहरा
धरती की रक्षा करने की शत-शत कसमे खाये हैं
कुछ तो अजगुत कहता है यह सघन सुरक्षा का घेरा
क्या फिर से तारामंडल में घन संकट के छाये हैं
पोथी लेकर भोली बाला घूम रही वीराने में
अक्षर ने शब्दों से मिल कर गीत सुहाने गाये हैं
खौल रहा है खून वतन का मौसम में खामोशी है
कहर न जाने कितने कितने संबंधों ने ढाये हैं
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय गोपाल सर, बहुत शानदार ग़ज़ल कही है आपने. इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई निवेदित है. सादर
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , बहरे मीर पर बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने , दिल से बधाइयाँ स्वीकार कीजिये ।
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